नोपलब्धाः।
continue अथौजोमेहृचिकित्साप्रकरणम।।
[90-21]
माषोन्मितं चूर्णमेषां शीलितं हन्ति यत्नतः।
पिष्टौजः प्रभृतीन् मेहाँस्तमो रविरिव द्रुतम्।।21।।
[90-21]
ओपजोमेहापहो रसः-
[90-22]
शताधिकपुटोद्भूतं भसितं त्वयसः शुभम्।
मुक्तायाश्च सुवर्मस्य तो
लकार्द्वमितं पृथक्।।22।।
[90-22]
[90-23]
विद्रुमस्य च तोलैकं गृहीत्वा चाम्भसा सह।
संपिष्य रक्तिकोन्माना वटीः कुर्याद्यथाविधि।।23।।
[90-23]
[90-24]
ओजोमेहापहो नाम रसोऽयं क्षौग्रसंयुतः।
सेवितो नितरां हन्यादोजोमेहं न संशयः।।24।।
[90-24]
[90-25]
ओजोमेहे वटी चन्द्रप्रभा सर्वेश्वरो रसः।
वटिका सर्वतोभद्रा वसन्तकुसुमाकरः।।25।।
[90-25]
[90-26]
मुक्तावङ्गेश्वरश्चैवंविधाश्चान्येऽपि सद्रसाः।
देवदारूभवोऽरिष्टश्चन्दनाद्यासवोऽपि च।।26।।
[90-26]
[90-27]
दाडिमाद्यं घृतं तैलं प्रमेहमिहिराभिधम्।
मेहाझिकारसंप्रोक्तं यथाऽर्हं सर्वमौषधम्।
प्रोक्तव्यं विचार्यैव भिषग्भिर्हितकैङिक्षभिः।।27।।
[90-27]
चन्दनासवः-
[90-28]
चन्दने सरलं चैव देवदारू निशाद्वयम्।
सुरप्रियं चाग्निमूलं धात्री च त्रिवृता लघु।।28।।
[90-28]
[90-29]
शतमूल्यश्यभिच्छायामाऽनन्ता वासाऽङिघ्रवल्कलम्।
लक्ष्मणाया मूलमाभावरूणाङिघ्रभवे त्वचे।।29।।
[90-29]
[90-30]
पलोन्मितं च प्रत्येकं द्राक्षायाः पलविंशकम्।
धातकीं षोडशपलां तुलोन्मानां च शर्कराम्।।30।।
[90-30]
[90-31]
माक्षिकार्द्वपलं सर्वं जलद्रोणद्वये क्षिपेत्।
स्निग्धे भाण्डे मासमेकं सपिधाने निधारयेत्।।31।।
[90-31]
[90-32]
चन्दनासव इत्येष आमयौघविघातकः।
मूत्रशुक्ररजोजातान् दोषानपि सुदारूणान्।।32।।
[90-32]
[90-33]
प्रमेहान् विंशतिं हन्ति मूत्राघातांस्त्रयोदश।
मूत्रकृच्छं चाष्टविधं चाश्मरीं च चतुर्विधाम्।।33।।
[90-33]
[90-34]
हलीमकं पाण्डुरोगमन्त्रवृद्विं च कामलाम्।
अग्निमान्द्यं तथा कुष्ठं श्वासं कासमरोचकम्।।34।।
[90-34]
[90-35]
औपसर्गिकमेहांश्च निहन्यादप्यसंशयम्।
भाषितः श्रीमहेशेन लोकमङ्गलकारिणा।।35।।
[90-35]
पथ्यापख्यव्यवस्था-
[90-36]
बलदं सुपचं प्रत्नं धान्यमुद्गयवादिकम्।
कुलकं कारवेल्लं काकोदुम्बरकं तथा।।36।।
[90-36]
[90-37]
वार्त्ताकुं च प्रयत्नेन सेवेत हितकाम्यया।।37।।
[90-37]
[90-38]
मधुरं गुरू मांसं च वह्नयातपनिषेवणम्।
दुष्टशीताम्भसा स्नानपानादि परिवर्जयेत्।।38।।
[90-38]
इति भैषज्यपरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे ओजोमेह-
चिकित्साप्रकरणम्।।90।।
अथ लसीकामेहचिकित्साप्रकरणम्।।91।।
[91-1]
अनूषदेशोद्भवमीनमांसादिकादनाद्वाऽमितभोजनाद्वा।
क्लिन्नंसदापर्युषितं भृशाभिष्यन्दिप्रकामं मधुरं गरीयः।।1।।
[91-1]
[91-2]
अन्नंविशोषाद्रसनाऽतिलौल्यात्समश्रतामत्रनृणामवश्यम्।
तथाचशरीपरिश्रमंवाह्यकुर्वतांवामनसोऽधिकश्रमात्।।2।।
[91-2]
[91-3]
प्रदूषितो हेतुभिरेभिरन्यैःणकाशयश्चापियकृन्नितान्तम्।
वृक्कद्वयेऽथापि च मूत्रकोषे क्षतं समुत्पादयतो विशेषात्।।3।।
[91-3]
[91-4]
ततश्च मूत्रं तरलं सरक्तंलसीकया वा सहितं च मेदसा।
क्कचिद्वनं स्थूलमथापि सूत्रवज्जतूकवारिप्रतिमंप्रवर्त्तते।।4।।
[91-4]
[91-5]
वैशिष्टयतोऽस्मिन्नपि दोषदूष्ययो-
र्ह्नसं प्रवृद्विं च सदैव लक्षयेत्।
कुर्याच्चिकित्सामवगत्य वैद्यो मूत्रस्थितं वर्णविशेषमेव।।5।।
[91-5]
वातजलसीकामेहलक्षणम्-
[91-6]
वातोपसृषेऽत्र भवेद्वि मूत्रं-
सशोणितं पूर्णतयाऽम्लगन्धकम्।
मलावरोधोऽपि च सन्धिवृन्द-
विश्लेषणं चाप्युपजायतेऽद्वा।।6।।
[91-6]
[91-7]
प्रवर्त्तितं मुहुर्मूत्रमामिक्षाजलसंनिभम्।
इदं लसीकोमेहस्य भाषितं लक्ष्म कृत्स्नशः।।7।।
[91-7]
पित्तजस्य तस्य लक्षणम्-
[91-8]
घनंपूतियुक्तंच दुर्गन्धपूर्णं भवेत्पैत्तिके रोगिमूत्रं चपूर्णम्।
तथाऽस्यस्यवेरस्यमत्यर्थमेव प्रदाहश्चहस्तांघ्रिमध्येसदैव।।8।।
[91-8]
कफजस्य तस्य लक्षणम्-
[91-9]
कफेनोसृष्टेऽत्र शुक्लं तु मूत्रं-
भवेत्स्वच्छमत्यर्थमद्वाऽधिपात्रम्।
निशि स्थापितं प्रतरेवोपरिस्थं-
तदच्छं घनं सर्वथा चाप्यधःस्थम्।।9।।
[91-9]
[91-10]
कटौवङ्क्षणेऽनुक्षणंचापिपीडा प्रजोयोततीव्रोऽन्नविद्वेष एव
इदं लक्ष्मसर्वंकफेनोपसृष्टस्यमेहस्यचोक्तंलसीकाभिधस्य।।10।।
[91-10]
द्विन्रिदोषजयोर्लक्षणम्-
[91-11]
द्विदोषोत्थितेऽथ त्रिदोषोत्थितेऽद्वा
यथादोषमूह्यं तयोर्लक्षणं वै।
पुरा वर्णितं यत्पृथग्दोषरूपं
तदेवात्र बोध्यं यथावद्विमिश्रम्।।11।।
[91-11]
साध्यासाध्यलक्षणम्-
[91-12]
लसीकाभिधोऽयं तु मेहो हि यूनां-
बलेनान्वितानां विशेषान्नवोत्थः।
अपि प्रायशः साध्य एवामयज्ञै
र्भिषग्भिर्जनैर्बौधितो बुद्विमद्भिः।।12।।
[91-12]
[91-13]
स एवाथवा दुर्बलानां तु वृद्वा-
त्मनां नैव साध्यः कदाचित्प्रदिष्टः।।
क्कचिच्चामयोऽयं गतः प्रौढभावं-
प्रशान्ति प्रयायात् सुपथ्यस्य योगात्।।13।।
[91-13]
[91-14]
पुनर्दैवदुर्दृष्टितो रोगयुक्तं-
स एवाधिगत्योत्थितिं स्वामवश्यम्।
नयत्येव कतालान्नरं चान्तकस्या-
न्तिके सच्चिकित्सामतिक्रम्य सर्वाम्।।14।।
[91-14]
कुपीलुबीजादिक्काथः-
[91-15]
कुपीलुबीजं बिल्वं च क्रिमिघ्नं कण्टरकारिका।
जाम्बवी चापि बब्बूलंत्वग्धात्रीरक्तचन्दनम्।।15।।
[91-15]
[91-16]
रक्तं खदिरमेषां तु कषायः पानतो धुवम्।
हन्ति नानाविधान् मेहानुपद्रवयुतानपि।
बयङ्करांल्लसीकौजोमाञ्जिष्ठप्रमुखान् द्रुतम्।।16।।
[91-16]
चन्दनादिचूर्णम्-
[91-17]
चन्दनं चापि बब्बूलसारोऽपि च पियङ्गुकम्।
जम्बूरसालयोर्बोजं मुस्तकं च यमानिका।।17।।
[91-17]
[91-18]
गुडूचीन्द्रयवा मोचरसो बस्मायसोऽपि च।
सर्वं समांशकं नीत्वा संचूर्ण्य च यथाविधि।।18।।
[91-18]
[91-19]
माषमात्रं च सेवेत तेन नश्यन्ति सत्वरम्।
पूयरक्तलसीकाद्याः प्रमेहा निखिला अपि।।19।।
[91-19]
[91-20]
अग्निमान्द्यं तथा तृष्णा ज्वराश्चारोचको गदाः।
चन्दनाद्यमिदं चूर्णं महेशेनैव भाषितम्।।20।।
[91-20]
[91-21]
लसीकाख्ये प्रमेहेऽस्मिन् सोमनाथो रसस्तथा।
वङ्गेश्वरो हेमनाथो गुडी चन्द्रप्रभाऽभिधा।।21।।
[91-21]
[91-22]
श्रीगोपालाह्वयं तैलं पल्लवसारसंज्ञकम्।
एवमादीन्यौषानि बहुमूत्रे प्रमेहके।।22।।
[91-22]
[91-23]
अधिकारे तु प्रोक्तानि प्रदेयानि भिषग्वरैः।।23।।
[91-23]
पथ्यापथ्यानि-
[91-24]
ओदनं रक्तशालीनां यवान्नं मुद्गमेव च।
वास्तूकमपि वेत्राग्रं कर्कोटी कदलीफलम्।।24।।
[91-24]
[91-25]
पालक्यादीनि शाकानि निवासो हिमवत्स्थले।
सुस्थचित्तत्वमेतानि हितानि तु प्रयन्ततः।
सेवेत हि लसीकाख्यमेहयुक्तः पुमान्।।25।।
[91-25]
[91-26]
अन्नं गुर्वप्यभिष्यन्दि मत्स्यं मांसं परिश्रमम्।
अत्यर्थगमनं चागनन्यातपयोश्च निषेवणम्।।26।।
[91-26]
[91-27]
परित्यजेत् प्रयत्नेन स्वास्थ्यसंपत्तिकाम्यया।।27।।
[91-27]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टकोगाधिकारे लसीका-
मेहचिकित्साप्रकरणम्।।91।।
अथ ध्वजभङ्गचिकित्साप्रकरणम्।।92।।
तन्र क्लैब्यस्य लक्षणम्
[92-1]
क्लीबः स्यात् सुरताशक्तस्तद्भावः क्लैब्यमुच्यते।।1।।
[92-1]
क्लीबलक्षणम्-
[92-2]
न मूत्रं फेनिलं यस्य विष्ठा चाप्सु निमज्जति।
मेढ्रश्चोन्मादशुक्राभ्यां हीनः स क्लीब उच्यते।।2।।
[92-2]
क्लैब्यस्य निदानम्-
[92-3]
तच्च सप्तविधं प्रोक्तं, निदानं तस्य कथ्यते।
तैस्तैर्भावैरहॄद्यैस्तु रिरंसोर्मनसि क्षते।।
ध्वजः पतत्यधो नॄणां क्लैब्यं समुपजायते।।3।।
[92-3]
मानसक्लैब्यहेतुः-
[92-4]
द्वेष्यस्त्रीसम्प्रयोगाच्च क्लैब्यं तन्मानसं स्मतम्।।4।।
[92-4]
पित्तजक्लैब्यहेतुः-
[92-5]
कटुकाम्लोष्णलवणैरतिमात्रोपसेवितैः।
पित्ताच्छुक्रक्षयो दृष्टः क्लैब्यं तस्मात् प्रयोज्यते।।5।।
[92-5]
शुक्रक्षयजक्लैब्योहतुः-
[92-6]
अतिव्यवायशीलो यो न च वाजीक्रीयारतः।
ध्वजभङ्गमवाप्नोति स शुक्रक्षयहेतुकम्।।6।।
[92-6]
मेढ्ररोगजक्लैब्यहेतुः-
[92-7]
महता मेढ्ररोगेण चतुर्थो क्लीबता भवेत्।।7।।
[92-7]
उपघातजक्लैब्यहेतुः-
[92-8]
वीर्यवाहिसिराच्छेदान्मेहानुन्नतिर्भवेत्।
तत्तूपघातजं क्लैब्यं पञ्चमं समुदीरितम्।।8।।
[92-8]
शुक्रस्तम्भजक्लैब्यहेतुः-
[92-9]
बलिनः क्षुब्धमनसो निरोधाद् ब्रह्नर्य्यतः।
षष्ठं क्लैब्यं स्मृतं तत्तु शुक्रस्तम्भनिमित्तजम्।।9।।
[92-9]
सहजक्लैब्यहेतुः-
[92-10]
जन्मप्रभृति यत्कलैब्यं सहजं तद्वि सप्तममम्।।10।।
[92-10]
साध्यासाध्यते-
[92-11]
असाध्यं सहजं क्लैब्यं मर्मच्छेदाच्च यद्भवेत्।
तथा तात्कालिकं साध्यं याप्यं स्याच्चिककालिकम्।।11।।
[92-11]
ध्वजभङ्गचिकित्सा-
[92-12]
क्लैब्यानामिह साध्यानां कार्यो हेतुविपर्ययः।
मुख्यं चिकित्सतं यस्मान्निदानपरिवर्जनम्।।12।।
[92-12]
विलासिनीवल्लभरसः-
[92-13]
कर्षौन्मितः पारदः स्याद् गन्धकोऽपि च तत्समः।
कर्षद्वयं च धुस्तूरबीजमेकत्र मर्दयेत्।।13।।
[92-13]
[92-14]
धुस्तूरबीजतैलेन पिष्ट्वा सर्वं यथाविधि।
वल्लद्वयप्रमाणेन सेवनीयो रसोत्तमः।।14।।
[92-14]
[92-15]
विलासिनीवल्लभाह्नः सितायुक्तो निरन्तरम्।
अयं मेहसमूहघ्नो वीर्यबन्धकरः परः।
कामिनीनां च दर्पघ्रो मुनिभिः समुदीरितः।।15।।
[92-15]
मदनकामदेवरसः-
[92-16]
रजतं हीरकं स्वर्णं रविः सूतश्च गन्धकः।
अयश्च क्रमवृद्वानि कुर्यादेतानि मात्रया।।16।।
[92-16]
[92-17]
विमर्द्य कन्यास्वरसैः काचकूष्यां निधापयेत्।
विमुद्रय तां तु यत्नेन मृद्वाण्डे सैन्धवैर्भृते।।17।।
[92-17]
[92-18]
संस्थाप्य विधिना तस्य मुखसन्धिं निरूद्वय च।
क्षतश्चुल्यां च संस्थाप्य दिनैकं मन्दवह्निना।।18।।
[92-18]
[92-19]
पकत्वा यथाविधि पुनः स्वाङ्गशीतं तमुद्वरेत्।
ततः संचूर्ण्य तं चार्कपयसैव विभावयेत्।।19।।
[92-19]
[92-20]
हयगन्धा च कालोली कपिकच्छुः शतावरी।
मुशली कोकिलाक्षश्च रसैरेषां पृथक् पृथक्।।20।।
[92-20]
[92-21]
भावयेच्च त्रिधा पश्चात्पझकन्दकसेरूजैः।
रसैश्चापि पृथक् कार्या भावनाऽप्येकधा ततः।।21।।
[92-21]
[92-22]
कर्पूरव्योषकस्तूरीकक्कोलैलालवङ्गकम्।
पूर्वचूर्णादष्टमाशमेतच्चूर्मं विमिश्रयेत्।।22।।
[92-22]
[92-23]
सर्वतुल्यां सितां चैव मिश्रयित्वा निधापयेत्।
शाणोन्मितं पिबेद्गव्यपसा द्विपलेन हि ।।23।।
[92-23]
[92-24]
मधुराहारनिरतो नरस्वत्वस्य प्रभावतः।
बलसौन्दर्यतेजोभिर्युक्तो नारीरनेकशः।।
भजमानोऽपि लभते बलहानिं न जातुचित्।।24।।
[92-24]
राक्षसरसः-
[92-25]
विशुद्वसूतं पलयुग्मसंमितं-
चाङ्कोटनीरेण विभावितं पुनः।
दृढं च घस्त्रत्रितयं विमर्द्य-
समानगन्धेन पुनर्विमर्दयेत्।।25।।
[92-25]
[92-26]
यदाऽञ्जनाभस्तु भवेत्तदा पुन-
श्चाङ्कोटनीरोण विभावयेद्भिषक्।
सद्योहतच्छगलमांसमध्ये
संस्थाप्य तल्लोहितवह्निवारा।।26।।
[92-26]
[92-27]
तुल्येन संमुद्रय च तालमूली-
निर्यासकेनापि च मांसपिण्डम्।
तदन्यमांसस्य च पिण्डमध्ये
पुनश्च संस्थाप्य च माषपिष्टया।।27।।
[92-27]
[92-28]
संलिप्य गाढं परितोऽतियत्ना-
त्तत्तप्ततैले च पाचनीयं-
कृतावधानैर्भिषजां वरैस्तु।।
पञ्चाक्षरं चात्र मनुं जपेच्च
ध्यात्वाऽपि देवीं प्रयतो रसेश्वरीम्।।28।।
[92-28]
[92-29]
ततः सिन्दूरतुल्याभं सिद्वं वचकसमुद्वरेत्।
अष्टोत्तरसहस्त्रं च जप्त्वा पञ्चाक्षरं मनुम्।।29।।
[92-29]
[92-30]
सिद्वाद्वकटतो यत्नाद्रसं निष्कासयेच्छनैः।
ततः शुभमुहूर्त्ते तु भिषजं सद्द्विजानपि।।30।।
[92-30]
[92-31]
संतोष्य रक्तिकोन्मानं मधुसर्पिःसमन्वितम्।
भक्षयित्वा रसं चानुपिबेद् दुग्धं सितान्वितम्।।31।।
[92-31]
[92-32]
रसायनोचितं भोज्यं यथेष्टं चापि भक्षयेत्।
कषायं च कटुं यत्नाद्रसं सेवेत न क्काचित्।।32।।
[92-32]
[92-33]
अनेन विधिना यस्तु शीलयेन्मानवो रसम्।
स कामदेवसदृशो भूत्वा वरस्त्रीणां शतं सदा।।33।।
[92-33]
[92-34]
सहस्त्रमपि कामान्धो भोक्तुं शक्तो भवेदपि।
यदि व्यावायं नो कुर्यात्तर्हि तद्रेत एव हि।।34।।
[92-34]
[92-35]
स्फुटित्वा नयनं यायात्त्स्मान्मैथुनमाचरेत्।
सेवनाद्राक्षसरसस्यास्य संजायते नरः।
अनङ्गसदृशः कामी कश्चिदत्र न संशयः।।35।।
[92-35]
कन्दर्पसुन्दररसः-
[92-36]
सूतो वज्रमाहिर्मुक्ता तारं सिताभ्रकम्।
रसैः कर्षाशकानेतान् मर्दयेदिरिमेदजैः।।36।।
[92-36]
[92-37]
प्रवालं चूर्णं गन्धस्य द्विद्विकर्षं विमिश्रयेत्।
प्रवालं चूर्णं गन्धस्य विमर्द्य मृगक्षृङ्गके।।37।।
[92-37]
[92-38]
क्षिप्त्वा मृदुपुटे पक्तवा भावयेद्वाचकीरसैः।
काकोली मधुकं मांसी बलात्रयबिसेङ्गुदम्।।38।।
[92-38]
[92-39]
द्राक्षापिप्पलिबन्दाकं वरी वानरी तथा।
परूषकं कशेरूश्च मधूकं वानरी तथा।।39।।
[92-39]
[92-40]
भावयित्वा रसैरेषां शोषयित्वा विचूर्णयेत्।
एलात्वाक्पत्रकं मांसीं लवङ्गगुरूकेशरम्।।40।।
[92-40]
[92-41]
मुस्तं मृगमदं कृष्णां जलं चन्द्रं च मिश्रयेत्।
एतच्चूर्णैः शाणमितै रसं कन्दर्पसुन्दरम्।।41।।
[92-41]
[92-42]
खादेच्छणमितं रात्रौ सिता धात्री विदारिका।
एतेषां कर्षचूर्णेन सर्पिष्कर्षेण समितम्।।42।।
[92-42]
[92-43]
तस्यानु द्विपलं क्षीरं पिबेत्सखिचमानसः।
रमणी रमयेद्वह्नीर्न हानिं क्कापि च्छति।।43।।
[92-43]
वीर्यसंस्तम्भकः सूतः-
[92-44]
शूद्वं सूतमिषुप्रतोलकमितं गन्धं तथा शुद्विमत्।
पञ्चाक्षं परिगृह्य संयतमुखां शुक्तिं समुद्वाटय ताम्।
तत्कीटं परिहृत्य शुक्तिजठरादन्तः क्षिपेद्कन्धकं
प्रोक्तस्यार्दवमथान्तरे विनिहितं सूतं समस्तं ततः।।44।।
[92-44]
[92-45]
सूतस्योपरि शेषगन्धकरजः प्रक्षिप्य तन्मध्यगं-
सूतं शुक्तिकयाऽन्ययोपरिगया संमुद्रय मृद्रस्त्रकैः
तां शुक्तिं परिशोष्य सूर्याकिरणात्संदीयतेऽग्रिस्तिषै
र्धान्यानां गजसंज्ञके वरपुटे तत्स्वाङ्गसंशीतलम्।
संचूर्ण्याशुकगालितं किल भवेद् गुञ्जोन्मितं पुष्टिकृद्
रेतः स्तम्भनकृत्पयोऽनु च पिबेत्सायं सितासंयुतम्।।45।।
[92-45]
सौगतगुटिका-
[92-46]
पारदगधन्कचम्पककेशरकुङ्कुमलवङ्गकरहाटाः।
अजमोगाम्बुधिशोषौ जातीपत्रं च जातिफलम्।।46।।
[92-46]
[92-47]
प्रत्येकं भागैकं भागद्वितयं च शुद्वमहिफेनम्।
तेन बदरसमुगुडिका कार्या मधुनाऽथ भक्षयेदेकाम्।।47।।
[92-47]
[92-48]
यामेऽतीते ललनासविधे स्थित्वा यमानिकाकर्षम्।
तैलार्द्वं भुञ्जीयादनुपानं चैतदेतस्य।।48।।
[92-48]
[92-49]
लिङ्गं कठिनतरं स्याद् वीर्यस्तम्भं भवेद् यामम्।
एषा सौगतुगटिका सत्यं सत्यं च वीर्यरोधकरी।।49।।
[92-49]
कामदेवरसः-
[92-50]
सूतो माषमितः स्वदोषरहितस्तत्तुर्यभागो बलि-
स्तन्मानस्तु भुडङ्गफेन उदितः क्षुद्राफलस्याम्बुना।
एतद्गोलकमाकलय्य विपचेत्क्षुद्राफले हेमगे
लावैरष्टमितैर्भवोदिति रसः श्रीकामदेवाभिधः।।50।।
[92-50]
[92-51]
मात्रा सूर्योदये गुञ्जा चैका यामचतुष्टये।
गुञ्जाचतुष्टयं नागवल्लीदलरसान्वितम्।
दुग्धौदनं सलवणं रात्रौ क्षीरं यथेच्छया।।51।।
[92-51]
वीर्यस्तम्भकलेपः-
[92-52]
सूतटङ्गकर्पूरं तुल्यं मुनिरसं मधु।
संमर्द्य लेपयेल्लिङ्गं स्थित्वा यामं तथैव च।।52।।
[92-52]
[92-53]
ततः प्रक्षाल्यं रसमेद्वनितानां शतं सुखम्।
वीर्यस्तम्भकरं पुंसां सम्यङ् नागार्जुनोदितम्।।53।।
[92-53]
मदनतैलम्-
[92-54]
शुष्कगण्डूपदभवं शुद्वभल्लातकोद्भवम्।
जातीफलसमुद्भूतं चाकारकरभोत्थितम्।।54।।
[92-54]
[92-55]
मृगधूलिमयं चूर्णं प्रत्येकं शाणमात्रकम्।
वातादफलतैलन्तु ग्राह्यं द्विकुडवोन्मितम्।।55।।
[92-55]
[92-56]
ततो विस्तीर्णमुख्यां तु काचकूप्यां निधाप्य च।
तन्मुखं रोधयेद् यत्नाद् मासमेकं सुरक्षिते।।56।।
[92-56]
[92-57]
स्थाने रक्षेत्तदूर्ध्वं तचु निर्मलं तैलमुत्तमम्।
प्राह्यं युक्त्योपरिस्थं तु पूतं किट्टविर्जितम्।।57।।
[92-57]
[92-58]
अस्य संमर्दनाल्लिङ्गे ध्वजभङ्गो विनश्यति।
अवैधमैथुनादिभ्यो जायमानो न संशयः।।58।।
[92-58]
ध्वमङ्गौषधमनामानि-
[92-59]
अधिकारे तु सम्प्रोक्तो वाजीकरणनामके।
स्वल्पो तथा बृहच्चन्द्रोदयादिमकरध्वजौ।।59।।
[92-59]
[92-60]
सिद्वसूतः पञ्चशरः कामदीपके एव च।
कामिनीपदसंयुक्तदर्पघ्नो रस उत्तमः।।60।।
[92-60]
[92-61]
कामाग्निसन्दीपनोऽपि पुष्पधन्वा पुष्पधन्वा रसस्तथा।
पूर्णचन्द्रस्तथा सिद्वशाल्मलीकल्प एव च।।61।।
[92-61]
[92-62]
एवंविधा रसाश्चान्ये प्रोज्याश्च यथाविधि।
त्रिकण्टकाद्यश्चापि श्रीमदनानान्दनामकः।।62।।
[92-62]
[92-63]
मोदकौ च रसालाऽपि योजनीया भिषग्जनैः।
अश्वहगन्धाऽमृतप्राशघृते साधुविनिर्मिते।।63।।
[92-63]
[92-64]
श्रीगोपालाभिधं तैलं पल्लवसारनामकम्।
तैलं महाचन्दनादि सेवनीयं प्रयत्नतः।।64।।
[92-64]
[92-65]
एवंविधान्यौषधानि यथादोषानुसारतः।
प्रयोज्यानि विचार्यैव ध्वभङ्गमये सदा।।65।।
[92-65]
ध्वजभङ्गे पथ्यम्-
[92-66]
शालिषष्टिकगोधूममसूरचणकादयः।
नवनीतं च दुग्धं च सुरा सीधुश्च वर्तकः।।66।।
[92-66]
[92-67]
चटकः कुक्कुटश्चैव तित्तिरिर्हरिणस्तथा।
शशच्छागयोरेषां पललानि मृदूनि तु।।67।।
[92-67]
[92-68]
द्राक्षाखर्जूराम्रजम्बूदाडिमानां फलानि च।
पथ्यान्येतानि प्रोक्तानि ध्वजभङ्गदे बुधैः।।68।।
[92-68]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिशष्टरोगाधिकारे ध्वजभङ्ग-
चिकित्साप्रकरणम्।।92।।
अथ वृक्करोगचिकित्साप्रकरणम्।।93।।
वृक्करोगसय निदानम्-
[93-1]
प्रायेण शैत्यस्य विषेषयोगाद-
वृक्कद्वये वृक्कगदोऽभिजायते।
मसूरिकायां च विसूचिकायां-
किंवाऽऽमवाते चिरजे ज्वरेऽपि वा।।
उपद्रवत्वेन गृहीतजन्मा
भवेदसौ चिति मतं बुधानाम्।।1।।
[93-1]
[93-2]
विशेषतो वृक्करोगो रक्तस्य परिवर्त्तनात्।
नराणां जायते देहे भिषजामिति निर्णयः।।2।।
[93-2]
तस्य पूर्वरूपम्-
[93-3]
निद्रानाशो वह्निमान्द्यं च शोथोनेत्रे चास्येषादयोर्वृक्करोगे
नाडीस्तब्धावेगमुक्तथचोष्णात्वाचंरौक्ष्यं पूर्वरूपंप्रदिष्टम्।।3।।
[93-3]
रोगावस्थायां वृक्कयोः स्वरूपम्-
[93-4]
वृक्कद्वन्द्वे रोगयुक्ते भवेतां-
स्थौल्यं तद्वन्मार्दवं चापि नूनम्।
द्वैगुण्यं चाकारमध्ये सिराणा-
मुच्छुनत्वं तत्र संदृश्यतेऽपि।।4।।
[93-4]
[93-5]
नाडीमध्यगतस्यापि द्रवस्य बहुसञ्चयः।
तथा मूत्रं दधानायाः कलायाः क्षरणं परम्।।5।।
[93-5]
तस्य लक्षणम्-
[93-6]
छर्दिः शोथो वेदना चापि सर्वे-
ष्वङ्गेष्वद्वा शीर्षशूलं ज्वरश्च।
रक्तह्नासात्पाण्डुवर्णत्वमास्ये
स्वेदाभावस्त्वाचरौक्ष्याग्निमान्द्ये।
पीडा कटयां चोदरे वृक्कदेशे
नाडी नूनं वेगयुक्ता भवेच्च।।6।।
[93-6]
[93-7]
मूत्रं शश्वद्विन्दुरूपेण चोष्णं पीडायुक्तं वृक्करोगे स्त्रवेद्वै।
एवं तीव्रं लक्षणं वृक्कयुग्मे जातुस्यादेवाश्मरीयोगतोऽपि।।7।।
[93-7]
[93-8]
[93-9]
[93-10]
शिश्रस्याग्रे जायते चातिपीडा
मूत्रं रक्तेनान्वितं स्यात्कदाचित्।
शौत्योपेतं पाणिपादं भवेद्वै दाहश्चाल्पो मूत्रकाले ध्वजाग्रे
वृक्कद्वन्द्वे कार्यशैथिल्यहेतोर्घोरैः स्वैः स्वैर्लक्ष्णैर्लक्ष्यमाणः
रोगः प्लीह्नो दृद्यकृत्सं भवोनुर्वृक्कग्रस्तस्येतिचिह्नं प्रदिष्टम्
नादः कर्णे नेत्रतरोगो ध्वजोत्थो
भङ्गः शाखागैरवं चापि मूर्च्छा।
अंसे ग्रीवायां च मूर्ध्नि प्रपीडा।
मोहो लिङ्गान्येवमेतानि च स्युः।।10।।
[93-8]
[93-9]
[93-10]
उपद्रवाः-
[93-11]
मूर्च्छा कासः फुफ्फुसभित्तौ श्वयथुस्तथा ह्यरस्तोयः।
सलिलोदरश्च तद्वन्मूत्रविषस्य संक्रमणमध्यस्त्रम्।।11।।
[93-11]
[93-12]
अधिबृक्करोगमेते ननु भवन्त्युपद्रवा विशेषेण।।12।।
[93-12]
चिकित्साक्रमः-
[93-13]
आदौ तु भिषजा कार्यं विचार्यैव विधानतः।
रक्तसम्मोक्षणं रोगिरोगयोस्तु बलाबलम्।।13।।
[93-13]
[93-14]
ततो विरेकः स्वेदश्च तथा मूत्रलमुत्तमम्।
अन्नपानं भेषजं च वृक्करोगे प्रयोजयेत्।।14।।
[93-14]
[93-15]
व्याधिवृबन्धे तु संजाते स्नेहवस्तिः शुभावहः।
दूरतः षरिवर्ज्यं स्यादित्यायुर्विदुषां मतम्।।15।।
[93-15]
[93-16]
विड्विबन्धे तु संजाते स्नेहवस्तिः शुभावहः।
वृक्काश्मर्यां क्रमः सर्वः सुखदस्त्वश्मरीहरः।।16।।
[93-16]
सर्वतोभद्रावटी-
[93-17]
हेमरौप्याभ्रलौहानि जतु गन्धं च माक्षिकम्।
वटीं रक्तिमितां कुर्याद्विमर्द्य वरूणाम्भसा।।17।।
[93-17]
[93-18]
वटीयं सर्वतोभद्रा निखिलान् वृक्कजान् गदान्।
हरेद्वस्तिभवांश्चापि बलं वीर्यं च वर्द्वयेत्।।18।।
[93-18]
माहेश्वरवटी-
[93-19]
गगनं कान्तलौहं च स्फटिकास्वर्णमौक्तिकम्।
सहदेवीजटा क्षीरपुष्पी सर्वं समांशकम्।।19।।
[93-19]
[93-20]
संचूर्ण्य सितवर्षाभूर्गोक्षुरः शुष्कमूलकम्।
एषां क्काथैस्तु विधिना पृथक् संभाव्यं सप्तधा।।20।।
[93-20]
[93-21]
गुजाद्वयोन्मिताः कार्या वटिकाः सद्भिषग्जनैः।
इयं माहेष्वरीनाम्नी वटिका सेवनाद् ध्रुवम्।।21।।
[93-21]
[93-22]
वृक्करोगं च सलिलोदरं पाण्ड्वामयं तथा।
विषमज्वरं च शोथं सर्वदेहसमुद्गतम्।।22।।
[93-22]
[93-23]
मूर्च्छां च सत्वरं हन्याद् यथा वज्रं तु पादपान्।
सेवनीयं प्रयत्नेन क्षीरान्नं पथ्यरूपतः।।23।।
[93-23]
[93-24]
रसायनाधिकारो,क्तान्यौषधान्यत्र योजयेत्।
न चास्ति शमने कतिंचिन्निदिष्चमस्य भेषजम्।।24।।
[93-24]
[93-25]
कालं बलं च रूग्णानं सुविचार्य विशेषतः।
पथ्यैर्बस्यैः सुपाच्यैश्च भिषगेनं प्रयापयेत्।।25।।
[93-25]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगधिकारे वृक्करोग-
चिकित्साप्रकरणम्।।93।।
अथक्लेमरोगचिकित्साप्रकरणम्।।94।।
तन्रादौ क्लोमस्वरूपम्-
[94-1]
अग्न्याशयः संप्रति यः स वैद्यै-
क्लेमेतिनाम्राऽऽधुनिकैर्निगद्यते।
कुत्रास्ति प्राचीनभिषक्प्रदिष्टं-
क्लोमेति नाद्याप्यवधारितं हि।।1।।
[94-1]
[94-2]
निरूप्यतेऽद्वाऽऽधुनिकानुसाररि
क्लोमस्वरूपं सविशेषरूपम्।
भागे तु दक्षे हृदयादधः स्यात्
क्लोम्नो निवासो विदुषां मतेन।।2।।
[94-2]
[94-3]
इदं तु नूनं सलिलप्रवाहिसिरैकमूलं लपितं विशेषात्।
तृष्णासमुत्पादनशालि चायुर्वोदज्ञवृन्दैर्बहुशो निरीक्ष्य।।3।।
[94-3]
क्लोमरोगनिदानम्-
[94-4]
क्लम्नोऽभिवृद्विर्मृदुताऽथवाऽन्नैः-
स्निग्धैर्भृशं वा गुरूभिः सुसेवितैः।
किंवाऽभिघातादिभिरेव नूनं-
संजायते मानवदेहमध्ये।।4।।
[94-4]
[94-5]
किंचापि संधात इहास्त्रजातः प्रदृश्यते विद्रधिराश्ववश्यम्
एवंविधा नैकविधास्तथऽद्वारेगा भवेयुर्भृशदारूणाश्च।।5।।
[94-5]
क्लोमरोगलक्षणम्-
[94-6]
अग्नेर्मानद्यं पाण्डुता चापि कार्श्यं-
भ्रान्तिः सादः स्यादथोर्ध्वोदरे तु।
औष्ण्यं काठिन्यं तथोत्क्लेशवान्ती
क्लोमस्थायिन्यामये कामलाऽपि।।6।।
[94-6]
[94-7]
प्रजाते विकारे विद्रधेस्तु-
भवेदत्र शूलं तथाऽध्मानमेव।
तृषा चाधिकाऽप्यश्मरीतुल्यरूपा
सुघोरा शिला कष्टदायिन्यवश्यम्।।7।।
[94-7]
क्लोमरोगचिकित्सा-
[94-8]
यद्वह्नीदीप्तिकृत् प्रोक्तं धन्याकं विश्वभेष़जम्।
अन्नपानौषधं सर्वं तत्तत् क्लोम्नि गदे हितम्।।8।।
[94-8]
अभयादिक्काथः-
[94-10]
अभयाऽऽमलकं दारू धन्याकं विश्वभेषजम्।
द्रक्षा च शारिवेत्येषां क्काथः क्लोमामयापहः।।9।।
[94-9]
सुरेन्द्रमोदकः-
[94-10]
श्रीसंज्ञभङ्गुराश्यामा अब्जमूलं च पीवरी।
दीप्यका चपला श्रृङ्गी द्राक्षा छत्रा हरीतकी।।10।।
[94-10]
[94-11]
संमर्द्य मधुना वैद्यो मोदकान् परिकल्पयेत्।
क्लोमामयविनाशाय तं सेवेत यथाबलम्।।11।।
[94-11]
[94-12]
मोदकोऽयं सुरेन्द्राख्यः पुष्टिकृद्वलवर्द्वनः।
वह्निसंदीपनो हृद्यो रसायनवरः स्मृतः।।12।।
[94-12]
शशिशेखररसः-
[94-13]
रसगन्धाभ्रहेमानि विद्रुमं मौक्तिकं तथा।
मर्दनात्रन्यकावारा दिनं लिद्वो रसो भवेत्।।13।।
[94-13]
[94-14]
एकगुञ्जोन्मिता मात्रा प्रकल्प्याऽस्य भिषग्वरैः।
क्लोमहृद्द्रव्यजरसैर्मधुना शीलयेद्रसम्।।14।।
[94-14]
[94-15]
तेन सर्वे क्लोमरोगास्तथा मारूतसंभवाः।
पित्तजाः कफजाश्चाशु संप्रणश्यन्त्यशेषतः।।15।।
[94-15]
सुरेन्द्राभ्रवटी-
[94-16]
अभ्रं सहस्त्रशो दग्धं सूतं च दरदोद्धृतम्।
गन्धकं रेशराजस्य रसैः शुद्वं च हीरकम्।।16।।
[94-16]
[94-17]
सुवर्णं विद्रुमं मुक्तां तारं माक्षिकमेव च।
कान्तलौहं च संमर्द्य विधिनाऽनलवारिणा।।17।।
[94-17]
[94-18]
वल्लोन्मिता विधेयाश्च वटयश्छायाविशोषिताः।
यथादोषानुपानेन सेवनीयाः प्रयत्नतः।।18।।
[94-18]
[94-19]
क्लोमरोगविनाशाय वह्नेः संधुक्ष्णाय च।
अम्लपित्तं यकृच्छोथं प्लीहपाण्डुजलोदरम्।।19।।
[94-19]
[94-20]
गुल्मरोगं प्रमेहं च दारूणं विषमज्वरम्।
कुष्ठं सुदारूणं चैव निहन्ति नात्र संशयः।।20।।
[94-20]
[94-21]
यो यः समाश्रयेद् व्याधिः क्लोम्नि तं तमवेक्ष्य च।
क्रियां संसाधयेद्वैद्यो यथादोषं यथाबलम्।।21।।
[94-21]
पथ्यापथ्यम्-
[94-22]
अनुग्रमन्नपानं च सेवेत क्लोमपीडितः।
अग्रं च तत्प्रयत्नेन सततं परिवर्जयेत्।।22।।
[94-22]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे
क्लोमरोगचिकित्साप्रकरणम्।।94।।
अथ फिरङ्गरोगचिकित्साप्रकरणम्।।95
तन्र फिरङ्गब्दस्य निरूक्तिः-
[95-1]
फिरङ्गसंज्ञके देशे बाहुल्योनैव यद्भवेत्।
तस्मात्फिरङ्ग इत्युक्तो व्याधिर्व्याधिविशारदैः।।1।।
[95-1]
फिरङ्गस्य विप्रकृष्टनिदानम्-
[95-2]
गन्धरोगः फिरङ्गोऽयं जायते देहिनां ध्रुबम्।
फिरङ्गिणोऽङ्गसंसर्गात्फिरङ्गिण्याः प्रसङ्गतः।।2।।
[95-2]
[95-3]
व्याधिरागन्तुजो ह्येष दोषाणामत्र सङ्कमः।
भवेत्तं लक्षयेत्तेषां लक्षणैभिषजां वरः।।3।।
[95-3]
फिरङ्गरोगरूपम्-
[95-4]
फिरङ्गस्त्रिविधो ज्ञेयो बाह्य आभ्यन्तरस्तथा।
वहिरन्तर्भवश्चापि तेषां लिङ्गनि च ब्रुवे।।4।।
[95-4]
[95-5]
तत्र बाह्यः फिरङ्गः स्याद्विस्फोटसदृशोल्परूक्।
स्फुटितो व्रणद्वेद्यः सुखसाध्योऽपि स स्मृतः।।5।।
[95-5]
[95-6]
सन्धिष्वाभ्यन्तरः स स्यादामवात इव व्यथाम्।
शोथञ्च जनयेदेष कष्टसाध्यो बुधैः स्मृतः।।6।।
[95-6]
फिरङ्गस्योपद्रवाः-
[95-7]
कार्श्यं बलक्षयो नासाभङ्गो वह्नेश्च मन्दता।
स्थिशोषोऽस्थिवक्रत्वं फिरङ्गोपद्रवा अमी।।7।।
[95-7]
फिरङ्गस्य साध्यत्वादिकम्-
[95-8]
हिर्भवो भवेत्साध्यो नवीना निरूपद्रवः।
आभ्यन्तरस्तु कष्टेन साध्यः स्यादयमामयः।।8।।
[95-8]
[95-9]
हिरन्तर्भवो जीर्णः क्षीणस्योपद्रवैर्युतः।
यातो व्याधिरसाध्योऽयोऽयमित्याहुर्मुनयः पुरा।.9।।
[95-9]
अथ फिरङ्रोगस्य चिकित्सा।
कर्पूररससेवनविधिः-
[95-10]
फिरङ्गसंज्ञकं रोगं रसः कर्पूरसंज्ञकः।
अवश्यं नाशयेदेतदूचुः पूर्वचिकित्सकाः।।10।।
[95-10]
[95-11]
लिखयते रसकर्पूरप्राशने विधिरूत्तमः।
अनेन विधिना खादेन्मुखे शोथं न बिन्दति।।11।।
[95-11]
[95-12]
गोधूमचूर्णं सन्नीय विदध्यात्सूक्ष्मकूपिकाम्।
चन्मध्ये निक्षिपेत्सूतं चतुर्गुञ्जामितं भिषक्।।12।।
[95-12]
[95-13]
ततस्तु गुटिकां कुर्याद्यथा न दृश्यते बहिः।
सूक्ष्मचूर्णे लवङ्गस्य तां वटीमवधूलयेत्।।13।।
[95-13]
[95-14]
दन्तस्पर्शो यथा न स्यात्तथा तामम्भसा गिलेत्।
श्रममातपमध्वानं विशेषात् स्त्रीनिषेवणम्।।14।।
[95-14]
सप्तशालिवटी-
[95-15]
पारदष्टङ्गमानः स्यात्खदिरष्टङ्कसंमितः।
आकारकरभश्चापि ग्राह्यष्टङ्कद्वयोन्मितः।।15।।
[95-15]
[95-16]
टङ्कत्रयोन्मितं क्षौद्रं खल्वे सर्वं विनिक्षिपेत्
संमर्द्य तस्य सर्वस्य कुर्यात्सप्तवटीर्भिषक्।।16।।
[95-16]
[95-17]
रोगी तु भक्षयेत्प्रातरेकैकामम्बुना वटीम्
वर्जयेदम्ललवणं फिरङ्गस्तस्य नश्यति।।17।।
[95-17]
धूमप्रयोगः-
[95-18]
पारदः कर्षमात्रः स्यात्तावानेव हि गन्धकः।
तण्डुलाश्चाक्षमात्राः स्युरेषां कुर्वोत कज्जलीम्।।18।।
[95-18]
[95-19]
तस्यः सप्तः वटीः कुर्यात्ताभिर्धूमं प्रयोजयेत्।
दिनानि सप्त तेन स्यात्फिरङ्गान्तो न संशयः।।19।।
[95-19]
[95-20]
पीतपुष्पबला०पत्ररसैष्टङ्कमितं रसम्।
हस्ताभ्यां मर्दयेत्तावद्यावत्सूतो न दृश्यते।।20।।
[95-20]
[95-21]
ततः संस्वेदयेद्वस्तावेवं वासरसप्तकम्।
त्यजेल्लवणमम्लञ्च फिरङ्गस्तस्य नश्यति।।21।।
[95-21]
[95-22]
चूर्णयेन्निम्बपत्राणि पथ्या निम्बाष्टमाशिका।
धात्री च तावती रात्रिर्निम्बषोडशभागिका।।22।।
[95-22]
[95-23]
शाणमानमिदं चूर्णमश्नीयादम्भसा सह।
फिरङ्गं नाशयत्येव बाह्यमाभ्यन्तरं तथा।।23।।
[95-23]
[95-24]
चोपचीनीभवं चूर्णं शाणमानं समाक्षिकम्।
फिरङ्गव्याधिनाशाय भक्षयेल्लवणं त्यजेत्।।24।।
[94-24]
[94-25]
लवणं यदि वा त्यक्तुं न शक्नोति तदा तदा जनः।
सैन्धवं स हि भुञ्जीत मधुरं परमं हितम्।।25।।
[95-25]
कज्जल्यादिमोदकः-
[95-26]
पारदः कर्षमात्रः स्यात्तावन्मात्रं तु गन्धकम्।
तावन्मात्रस्तु खदिरस्तेषां कुर्यात्तु कज्जलीम्।।26।।
[95-26]
[95-27]
रजनी केशरं त्रुटयौ जीरयुग्मं यवानिका।
चन्दनद्वितयं कृष्णा वांशी मांसी च पत्रकम्।।27।।
[95-27]
[95-28]
अर्द्वकर्षमितं सर्वं चूर्णयित्वा च निक्षिपेत्।
तत्सर्वं मधुसर्पिर्भ्यां द्विपलाभ्यां पृथक् पृथक्।।28।।
[95-28]
[95-29]
मर्दयेदथ तत्खादेदर्द्वकर्षमितं नरः।
व्रणः फिकङ्गरोगोत्थस्तस्यावश्यं विनश्यति।।29।।
[95-29]
[95-30]
अन्योऽपि चिकजातोऽपि प्रशाम्यति महाव्रणः।
एतद्भक्षततः शोथो मुखस्यान्तर्न जायते।।30।।
[95-30]
[95-31]
वर्जयेदत्र लवणमेकविंशतिवासरान्।।31।।
[95-31]
इति भैषज्यरत्नवाल्यां विशिष्टरोगाधिकारे
फिरङ्गरोगचिकित्साप्रकरणम्।।95।।
अथ स्नायुकरोगचिकित्साप्रकरणम्।।96।।
तन्र स्नायुकरोगस्य निदानं लक्षणंच-
[96-1]
शाखासु कुपितो शोथं कृत्वा विसर्पवत्।
भित्त्वैव तं क्षते तत्र सोष्म मांसं विशोष्य च।।1।।
[96-1]
[96-2]
कुर्यात्तन्तुनिभं सूत्रं तत्पिण्डैस्तक्रशक्तुजैः।
शनैः शनैः क्षताद्याति च्छेदात्तत्कोपमावहेत्।।2।।
[96-2]
[96-3]
तत्पाताच्छोथशान्तिः स्यात्पुनः स्थानान्तरे भवेत्।
स स्नायुरिति विखयातः क्रियोक्ताऽत्र विसर्पवद्।।3।।
[96-3]
[96-4]
बाह्वोर्यदि प्रमादेन त्रुटयते जङ्घयोरपि।
सङ्कोचं खञ्जतां चापि च्छिन्नो नूनं करोत्यसौ।।4।।
[96-4]
स्नायुकरोगचिकित्सा-
[96-5]
स्नेहस्वेदप्रलोपादि कर्म कुर्याद्यथोचितम्।
रामठं शीततोयेन पीतं स्नायुकरोगनुत्।।5।।
[96-5]
[96-6]
स्वेदात्सनुकमत्युग्रं भेकः काञ्जिकासाधितः।
तद्वद् बब्बूलजं बीजं पिष्टं हन्ति प्रलेपानात्।।6।।
[96-6]
[96-7]
ग्व्यं सर्पिस्त्र्यहं पीत्वा निर्गुण्डीस्वरसं त्र्यहम्।
पिबेत्स्नायुकमत्युग्रं हन्त्यवश्यं न संशयः।।7।।
[96-7]
[96-8]
मूलं सुषव्या हिमवारिपिष्टं पानादिदं तन्तुकरोगमुग्र
शान्ति नयेत्सव्रणमाशु पुंसां गन्धर्वगन्धेन घृतेन पीत्वा
गन्धर्वागन्धेन=गन्धर्वागन्धोऽस्यास्तीति स गन्ध-
र्वगन्धः=अश्वगन्धस्तेन।।8।।
[96-8]
[96-9]
अतिविषमुस्तकभार्गोविश्वौषधपिप्पलीबिभीतक्यः।
चूर्णमिदं तन्तुघ्नं पुंसामुष्णेन वारिणा पीतम्।।9।।
[96-9]
[96-10]
शिग्रुमूलदलैः पिष्टैः काञ्जिकेन ससैन्धवैः।
लेपनं स्नायुकव्याधेः शमनं परमं मतम्।।10।।
[96-10]
[96-11]
अहिंस्त्रमूलक्लकेन तोयपिष्टेन यत्नतः।
लेपसम्बन्धनात्त्न्तुर्निःसरेन्नैव संशयः।।11।।
[96-11]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे स्नायुक-
रोगचिकित्साप्रकरणम्।।96।।
अथ पारदविकारचिकित्साप्रकरणम्।।97।।
[97-1]
यदा दोषहीनो भवेत् पारदो वै
जरामृत्युहारी तदा स स्मृतः स्यात्।
अतोऽसौ विशुद्वः सुधासंनिभोऽथो
विषाभो विशेषादशुद्वः प्रदिष्टः।।1।।
[97-1]
[97-2]
अयुक्तिप्रयुक्तो रसो रोगमूलं-
सुयुक्तिप्रयुक्तो जराव्याधिशूलम्।
यतः संप्रदिष्टो विशिष्टैर्भिषग्भि-
स्ततः सेवनीयो यथाविध्यभिज्ञैः।।2।।
[97-2]
[97-3]
विधिवदेष रसो ननु सेवितो-
हरति नुर्नितं सकलामयान्।
अविधिना स हि भक्षित एव वै
भुवि करोति गदान् विविधानिमान्।।3।।
[97-3]
[97-4]
नासाभङ्गः पीनसो दन्तपातो-
नेत्रास्योत्थो रोगजातो बिसर्पः।
कोठः कण्डूर्मस्तके चातिपीडा
त्वग्वैवर्ण्यं नासिकादौ क्षतं च।।4।।
[97-4]
[97-5]
पीडायुक्तग्रन्थिवाच्छोथकाठि-
न्यं जायेतात्यण्डकोशद्वये च।
पक्षाघातो ग्रन्थिवातोऽस्थिजाडयं-
दाहो घोरश्चापि चेतोविकारः।।5।।
[97-5]
[97-6]
भगन्दरो नैतकविधानि कुष्ठोपदंशचिह्नानि शरीरमध्ये
तथाऽरे कृच्छ्रतमा गदाः स्युर्यथोचितं भेषजमत्रकल्प्यम्।।6।।
[97-6]
प्रकारान्तरेण पारदविकारलक्षणानि-
[97-7]
दन्तवेष्टे सरक्तत्वं मृदुत्वं श्वयथुः क्षतम्।
सूचीव्यधनिभा पीडा बहुच्छिद्रत्वमेव च।।7।।
[97-7]
[97-8]
मलं शिथिलता दन्ते लालास्त्रवो मुखादपि।
तत्र धातुरसास्वादो नितरामप्रियोऽपि च।।8।।
[97-8]
[97-9]
शोथोऽधिरसनं तद्वद् दरणं कृशता तनौ।
गलशुण्डीप्रभृतीनामायानां समुद्भवः।।9।।
[97-9]
[97-10]
श्वयथुश्च गलग्रन्थौ श्रुतिमूलेऽध्यधोहनु।
जायन्ते सूतविकृतौ चिह्नान्येतानि संततम्।।10।।
[97-10]
[97-11]
अनारतं सेवितश्चैदतिमात्रं स पारदः।
तर्हि चेतोऽवसादं च ज्वरं शैथिल्यमेव च।।11।।
[97-11]
[97-12]
पातं द्विजानां क्षरणमधिहन्वस्थि निश्चितम्
वदने विद्रधिं चापि रक्तपित्तं च पाण्डुताम्।।12।।
[97-12]
[97-13]
एवमादीनामयांस्तु प्राय उत्पादयन्नरान्।
अन्तकस्यान्तिके चान्ते संनयेदेव सत्वरम्।।13।।
[97-13]
सूतबाष्पजविकारलक्षणानि-
[97-14]
सूतसंजातबाष्पाणामतिमात्रनिषेवणात्।
आरभ्य वदनात्कम्पः प्रसरंश्च भुजङ्घिषु।।14।।
[97-14]
[97-15]
जायते मांसपेशीनां दौर्बल्यं चातिमात्रकम्।
व्यापारेष्विन्द्रियाणां च विकारः प्रयाशो नृणाम्।।15।।
[97-15]
शीघ्रकारिसूतविकारलक्षणानि-
[97-16]
अध्यामाशयमध्यन्त्रं श्वयथुः शूलसंयुतः।
मरणं चान्ततौ गत्वा रोगिणामुपजायते।
अतिसारः सहास्त्रेण वमनं मोह एव च।।16।।
[97-16]
[97-17]
शीघ्रकारिरसोद्भूतविकारस्येति लक्षणम्।
अनुभूय भिषगव्न्द्यैः प्रकाशितमशेषतः।।17।।
[97-17]
पारदविकारचिकित्सा-
[97-18]
अहन्याहनि सेवेत बलिं रक्तिचतुष्टयम्
शुद्वगन्धादृते नास्ति भेषजं किञ्जिदुत्तमम्।।18।।
[97-18]
[97-19]
सर्वसूतविकारघ्नं वपुः सद्वर्णकारकम्।।19।।
[97-19]
न्रिफलादिक्काथः-
[97-20]
त्रिफलाकटुकाभीरूपटोलामृतपर्पटैः।
कृतः क्काथः पानतोऽद्वा सूतोत्थविकृतीर्हरेत्।।20।।
[97-20]
तिक्तादिक्काथः-
[97-21]
तिक्ता तथाऽमृताऽनन्ता महाश्रावणिका वरी।
पथ्या गोपवधूश्चैव वायसी दुष्परधर्षिणी।।21।।
[97-21]
[97-22]
जीवनीं श्रीफलं धात्रीफलं सर्वं समांशकम्।
निष्क्काथ्य योजयेद्वैद्यो सूतसंभूतं आमये।।22।।
[97-22]
शारिवाद्यवलेहः-
[97-23]
शारिवां तु तुलोन्मानां वारिद्रोणे विपाचयेत्।
पादावशिष्टे क्काथे च वरी तिक्ताऽमृता वरा।।23।।
[97-23]
[97-24]
त्रिवृता जीवनीयश्च गणश्चैवोपकुञ्जिका।
त्रायन्ती चापि प्रत्येकं चूर्णितं द्वयक्षमात्रकम्।।24।।
[97-24]
[97-25]
प्रक्षिप्यः लेहवत् साध्यं यथाविधि भिषग्वरैः।
शीत पलाष्टकमितं माक्षिकं तत्र निक्षिपेत्।।25।।
[97-25]
[97-26]
कर्षमात्रं ततो दुग्धानुपानेनैव भक्षयेत्।
अस्य सेवनमात्रेण रक्तदोषभवा गदाः।।26।।
[97-26]
[97-27]
पिडका अप्युपदंशश्च प्रमेहा विंशतिस्तथा।
विशेषात्सूकसंजाता विकारा निखिला ध्रुबम्।।27।।
[97-27]
[97-28]
नश्यन्ति सकला रोगा अपरे चाथ मानुषः।
बलवर्णानलोपेतः सन्ततं सुखितो भवेत्।।28।।
[97-28]
[97-29]
पिपासाकुलितं दृष्ट्वा नरं सूतविकारिणम्।
पाययेत्सलिलं सद्यो नारिकेलभवं भिषग्।।
सितोपलाऽन्वितं किंवा मुद्गयूषं च तत्क्षणम्।।29।।
[97-29]
[97-30]
अपि चोद्गारबाहुल्यत्रस्तं तं दधि चौदनम्।।30।।
[97-30]
[97-31]
कृष्णामत्स्यं च संसिद्वं जीरकाद्यैश्च संस्कृतम्।
भोजयेदथ चेद् वायोः प्रकोपस्तत्र तं द्रुतम्।।31।।
[97-31]
[97-32]
वातघ्रोत्तमतैलानामभ्यङ्गं कारयेद् भृशम्।
भवेद् यद्यरतिर्जातु विशेषात्तत्र यत्नतः।।32।।
[97-32]
[97-33]
सुशीतलजलेनैव हितं मूर्ध्न्यभिषेचनम्।
एवं सम्यग्विचार्यैव कुर्याद्दोषारसारणम्।।33।।
[97-33]
पारदविकृतिनाशकान्यौषधानि-
[97-34]
वातशोणितकुष्ठोक्तं क्काथं गुग्गुलुकादिकम्।
वातरक्तापहं प्रोक्तं यच्च भेषजमुत्तमम्।।34।।
[97-34]
[97-35]
तत्सर्वं योजयेद्वैद्यो ज्ञात्वा दोषबलाबलम्।
महारूद्रगुडूच्याख्यं तैलं तु व्रणराक्षसम्।।35।।
[97-35]
[97-36]
कन्दर्पसारसंज्ञं च नाडीव्रणनिषूदनम्।
मरिचाद्यं बृहत्तैलं यथायोग्यं प्रयोजयेत्।।
उपदंशाधिकारोक्तमनन्ताद्यं घृतं तथा।।36।।
[97-36]
पथ्यापथ्यम्-
[97-37]
वातरक्तोऽथ कुष्ठे यत् पथ्यं सेव्यं च तत्सदा।
अपथ्यं यत्तु तद्वेयं यत्नात्सूतविकारिभिः।।37।।
[97-37]
इतिभैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे पारद-
विकारचिकित्साप्रकरणम्।।97।।
अथ शीर्षाम्बुरोगचिकित्साप्रकरणम्।।98
शीर्षाम्बरोगस्य निदानम्।
[98-1]
दुष्टाम्बुपानादतिशैत्यतो वा
आन्त्रक्रिमेरूद्भवतोऽभिघातात्।
असात्म्यभोज्याशनतः सुरायाअत्यर्थपानात्पवनप्रदोषात्।।1।।
[98-1]
[98-2]
संचीयते यत्कमतः शिरःस्थस्नेहस्य भूमौ बहुलंजलंहि
तदेव वैद्यैर्गदितस्तु शूर्षाम्बुरोगएषत्वतिदुश्चिकित्स्यः।।2।।
[98-2]
[98-3]
प्रायः शिशूनामुपजायतेऽसौ
बाल्ये वयस्येव गदे विशेषात्।
दन्तोऽद्गमेऽनेकविधाहितानां-
निषेवणात्सद्भिषजां मतेन।।3।।
[98-3]
तस्य पूर्वरूपम्-
[98-4]
जिह्ना मलाढयाऽपि च गाढविट्कता
दोर्बल्यनिद्राधिकते तथा च।
शीर्षाम्बुरोगे त्विति पूर्वरूपम्।।4।।
[98-4]
तस्य लक्षणम्-
[98-5]
तीब्रा व्यथा शिरसि कृष्णपुरीषताऽथो
मूत्राल्पता श्रुतिगताऽक्ष्णि च तीक्ष्णता स्यात्
वेगं समाश्रितवती धमनी त्वचायां-
रौक्ष्योष्णते च वमनं विषमाक्षितारा।।5।।
[98-5]
[98-6]
लौहित्यमक्षियुगले च विवर्णताऽऽस्ये
निद्राक्षणे दशनघर्षणमप्यवश्यम्।
कण्डूरदच्छदगताऽपि च नासिकाया-
माक्षेपकः प्रलपनं खलु पक्षनाशः।
शीर्षाम्बुरोग इति लक्ष्म भिषग्वरोक्तं-
भूयश्चिकित्सकजनैर्बहुशोऽनुभूतम्।।6।।
[98-6]
तस्य चिकित्सा-
[98-7]
यदौषधं रेचकं स्याद् यच्च मूत्रप्रवर्त्तकम्।
अस्त्रदोषहरं चापि तच्छीर्षाम्बुगदे हितम्।।7।।
[98-7]
[98-8]
मुण्डयित्वा शिरस्तच्च च्छाजयेदुष्णवाससा।
पाययेन्नारिकेलस्य स्नेहं शश्वच्च रोगिणम्।
सेवयेद्रसचूर्णं च स्वल्पमात्रं भिषग्वरः।।8।।
[98-8]
पीतमूल्यादिक्काथः-
[98-9]
पीतमूलीमनन्तां चामलकीं त्रिवृचां शटीम्।
तिक्तां गोपवधूमब्दं धन्याकं मधुकं निशे।।9।।
[98-9]
[98-10]
हरीतकीं त्रिजातं च क्काथयित्वा यथाविधि।
यवक्षारेण सहितं पाययेदस्य शान्तये।।10।।
[98-10]
सलिलशोषणं चूर्णम्-
[98-11]
रसचूर्णं यवक्षारं पीतमूलीं त्रिजातकम्।
भार्गौमेलां तथा लघ्वीमभयामिन्द्रवारूणीम्।।11।।
[98-11]
[98-12]
समांशेन च संचूर्ण्य प्रयुञ्ज्यात् पयसा सह।
शीर्षाम्ब्वेतन्निरपाकुर्याच्चूर्णं सलिलशोषणम्।।12।।
[98-12]
कुङ्कुमाद्यं घृतम्-
[98-13]
कुङ्कुमं शारिवां द्राक्षां जीवन्तीमभया विडम्।
पत्रं पटोलमूलञ्च सर्पिषा पाचयेद्भिषक्।।13।।
[98-13]
[98-14]
अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत वीक्ष्य व्याधेर्बलाबलम्
सर्वशीर्षदान् हन्ति कुङ्कुमाद्यमिदं घृतम्।।14।।
[98-14]
[98-15]
भाषितं श्रीमहेशेन सर्वलोकहितार्थिना।।15।।
[98-15]
रसतैलम्-
[98-16]
धुस्तूरं धातकीं मूर्वां मधूकं विडम्।
नागरं नीलिनीं कृष्णां कट्फलं कटुकां जलम्।।16।।
[98-16]
[98-17]
शाणमानेन निःक्षिप्य कटुतैलशरावके।
संवृते मृन्मये भाण्डे निशाः सप्त च यापयेत्।।17।।
[98-17]
[98-18]
ततः कल्कान् विनिर्ह्यत्य कज्जलीमर्द्वकार्षिकीम्।
तत्र सम्मिश्रय शिरसि मुण्डिते तत् प्रयोजयेत्।।18।।
[98-18]
[98-19]
रसतैलमिदं हन्याच्छीर्षाम्ब्वाशु न संशयः।
व्याधितानां हितार्थाय हरेणैतदुदीरितम्।।19।।
[98-19]
वह्निभास्करो रसः-
[98-20]
सुवर्णमभ्रं वैक्रान्तं रजतं शाणमानकम्।
लौहं रसं गन्धकञ्च माक्षिकं कर्षसम्मितम्।।20।।
[98-20]
[98-21]
रक्तचित्रकयोगेन तथा ब्राह्नया रसेन च।
त्रिःसप्तकृत्वः सम्भाब्य कुर्याद्वल्लमिता वटीः।।21।।
[98-21]
[98-22]
रसोऽयं सर्वथा हन्ति मस्तिष्कोदकमाशु च।
अन्यांश्च शिरसो रोगान् वह्निस्तृणानिव।।22।।
[98-22]
[98-23]
वह्निवद्भासते यस्माद्वीर्येणैष रसोत्तमः।
ख्यातः प-थ्वीतले तस्मादाख्या वह्निबास्वरः।।23।।
[98-23]
[98-24]
यद्येवंविधभैषज्यैर्गदः शाम्येन्न जातु चित्।
तदा शस्त्रचिकित्सायां कुशलेन यथाविधि।।24।।
[98-24]
[98-25]
शस्त्रेणैव त्रिकूर्च्चेन मस्तिष्कादतियत्नतः।
निष्कासनीयं सलिलं येन शान्तिं घ्रजेद् गदी।।25।।
[98-25]
[98-26]
यत्पुष्टिकृच्छ सुपचं पानमन्नं प्रकीर्त्तितम्।
शीर्षाम्बुरोगे यत् पथ्यं त्वपथ्यं च तदन्यथा।।26।।
[98-26]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे
शीर्षाम्बुरोगचिकित्साप्रकरणम्।।98।।
अथ मस्तिष्कवेपनचिकित्साप्रकरणम्।।99
मस्तिष्कवेपनस्य निदानम्-
[99-1]
यदा भवेन्मूर्ध्न्यभिघात उच्चकै-
स्तदा तदीयैनुगुणैः स्वलक्ष्णैः।
सुलक्ष्यमाणः खलु शूर्षवेपना-
मयो भवेद्वैद्यजनाभिभाषितः।।1।।
[99-1]
तस्य लक्षणम्-
[99-2]
ल्लासमूर्च्छे वमनंजडत्वं चित्तस्य चाञ्चल्यमतीव वेपथुः।
स्यात्कर्णनादोमलिनास्यता चप्रविस्तुतिर्नेत्रकनीनिकायाः।।2।।
[99-2]
[99-3]
नाडयास्तथा स्पन्दनमल्पमात्रं
शैत्यं तनोर्दुर्बलताऽधिकाऽपि।
वाचो विकारः खलु पक्षहानी
रोगे प्रजायेत हि शीर्षवेपने।।3।।
[99-3]
तस्य लक्षणम्-
[99-4]
मनःसथैर्यकरी कार्या क्रिया मस्तिष्कवेपने।
शिरस्युष्णेऽतिशीतेन तोयेन सेचनं हितम्।।4।।
[99-4]
[99-5]
मस्तिष्कवेपनध्वंसि दन्तीस्नेहेन रेचनम्।।5।।
[99-5]
[99-6]
यदा नाडी भेवत्क्षीणा रोगेऽस्मिन् भिषजा तदा।
सजला बललाभय मृतसञ्जीवनी सुरा।।6।।
[99-6]
[99-7]
प्रयोक्तव्या यथामात्रं बल्यमन्यच्च भेषजम्।
तेन सा प्रकृतिस्था स्यान्नात्र कार्या विचारणा।।7।।
[99-7]
[99-8]
वह्नयुष्मणा हरेच्छैत्यमङ्गानां कुशलो भिषक्।।8।।
[99-8]
[99-9]
शाययित्वा च शय्यायामतिशीताङ्गशालिनम्।
शीर्षवेपनरोगार्त्तं गुरूष्णवसनेन हि।।9।।
[99-9]
[99-10]
आच्छाद्य यत्नात्सर्वाङ्गं तच्छय्याया अधस्तले।
ज्वलदङ्गरराशिं च स्थापयित्वा समाहितः।।10।।
[99-10]
न्रिवृतादिक्काथः-
[99-11]
त्रिवतां स्वर्णपत्रीं च मुस्तकीं मधुकं बलाम्।
हरिग्रे द्वे नागरं च त्रिफलां कटुरोहिणीम्।
क्काथयित्वा प्रयोक्तव्यं शीर्षवेषनशान्तये।।11।।
[99-11]
[99-12]
वलाक्काथेन सिन्दूरं शीर्षवेपथुनाशनम्।
वातव्याधिहरं सर्वं भेषजं तस्य शान्तकृत्।।12।।
[99-12]
पथ्यापथ्यम्-
[99-13]
क्षीरं मांसरसो मद्यं स्नायुपुष्टिकरं परम्।
सुजरं सारकं स्वादु चान्नपानादिकं चु यत्।
शीर्षवेपथुरोगार्त्तकृते तन्निखिलं हितम्।।13।।
[99-13]
[99-14]
एतदन्यत् समस्तं हि विज्ञातव्यं तु दुःखादम्।।14।।
इकि भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे मस्तिष्क-
वेपनचिकित्साप्रकरणम्।।99।।
अथ मस्तिष्कचयापचयचिकित्साप्रकरणम्।।100
तन्रादौ मस्तिष्कचयस्य निदानादिकम्-
[100-1]
प्रायः शिशूनां क्कतिदेव यूनां-
तनुस्वभावादथवाऽपि दैवतः।
कपालमत्यर्थमुपैति वृद्विं-
मस्तिष्कवृद्वौ खलु मस्तुलुङ्गः।।1।।
[100-1]
[100-2]
वृद्विः समाना यदि मस्तुलुङ्ग-
कपालगा स्याद्वि यदा तु तत्र।
प्रायेम काचिन्न विकारजाता
भीतिर्भिषग्भिः क्कचिदूहनीया।।2।।
[100-2]
[100-3]
मस्तिष्कमध्ये यदि जातु वृद्वि-
र्न सा कपाले परिलोकिता स्यत्।
मस्तिष्कमध्ये तु तदाऽतिघोरा-
उपद्रवाः स्युश्च तदीयपीडनात्।।3।।
[100-3]
उपद्रवाः-
[100-4]
शिरोऽर्त्तिर्भ्रमो मूर्च्छनं पक्षनाशो-
बलस्यापि हानिस्तथाऽऽक्षेपरोगः।
तथाऽन्तेऽपि मृत्युश्च मस्तिष्कवृद्वा-
उपद्रुत्य एता भिषग्भिर्विमाव्याः।।4।।
[100-4]
मस्तिष्कचयस्य चिकित्सा-
[100-5]
वृद्विस्तु मातुलुङ्गस्य भवेन्मृत्यप्रदायिनी।
न भवेत्सफलं यद्यष्यौषधं तत्र योजितम्।।5।।
[100-5]
[100-6]
तथाऽपि सेव्यं यत्नेन यथाविधि रसायनम्।
पञ्चगव्यं घृतं क्षौद्रेणान्वितं पेयमेव हि।।6।।
[100-6]
मस्तिष्कापचयस्य निदानादिकम्-
[100-7]
वृद्विस्तु मस्तिषकभवा यथा स्याद्-
ध्रासस्तथैवाप्युपजायते हि।
ह्नासोऽपि मस्तिष्कगतः कपाले
प्रवर्द्वमानेऽतिभयङ्करः स्यात्।।7।।
[100-7]
[100-8]
ह्नासो यदा स्यात्क्कचिदेकपार्श्वै
मृत्युर्भवेन्नैव तदाऽऽतुरस्य।
चेन्मस्तुलुङ्गस्य समन्ततो वा।
ह्नासस्तदाऽऽश्वस्तु मृतिस्तदीया।।8।।
[100-8]
मस्तिष्कापच्चयस्यचिकित्सा-
[100-9]
स्यान्मस्तुलुङ्गस्य सदैव वृद्विर्ह्नासोऽपि नूनं मरणायलोके
त्र्यर्थौ भवेदत्र यदप्युपायस्तथाऽपि रसायनिकोविधेयः।।9।।
[100-9]
[100-10]
ह्नासो मस्तिष्कगो यद्यपयन्तकृत् परिकीर्त्तितः।
तथाऽपि बृंहणं श्रेष्ठं सेवनीयमिहौषधम्।।10।।
[100-10]
चन्दनादिक्काथः-
[100-11]
चन्दनद्वितयं मर्वा द्वे श्यामे द्वे निशे शुभा।
लाक्षा वरी गैरिकं च जीवन्ती मधुकं तथा।।11।।
[100-11]
[100-12]
वाजिगन्धा वचा कृष्णा काकोली जीवकर्षभौ।
क्काथमेषां पिबेत् प्रातर्मस्तिष्कह्नासशान्तये।।12।।
[100-12]
[100-13]
अत्र वाताधिकारोक्तं घृतं तैलं यदुत्तमम्।
अपस्माराधिकारस्थं वाऽपि सेब्यं तदादरात्।।13।।
[100-13]
पथ्यापथ्यम्-
[100-14]
मस्तिष्कस्य चये ह्नासे लघु देहस्य पोषणम्
अन्नापनं च सेवेत विपरीतं तु संत्यजेत्।।14।।
[100-14]
इति भैषज्यरत्नालवल्यां विशिष्टरोगाधिकारे मस्तिष्क-
चयापचयचित्साप्रकरणम्।।100।।
अथ मस्तिष्करोगसामानयचिकित्साप्रकरणम्।।101।
बिल्वादिचूर्णम्-
[101-1]
बिल्वं मुस्तकमेलाञ्च चन्दनं रक्तचन्दनम्।
यवानीमजमोदाञ्च त्रिवृतां चित्रकं विडम्।।1।।
[101-1]
[101-2]
अश्वगन्धां बलां कृष्णां तुगाक्षीरीं शिलाजतु।
सञ्चूर्ण्य पयसा सार्द्वं प्रयुञ्जयात् काञ्जिकेन वा।।2।।
[101-2]
[101-3]
सेवनादस्य मास्तिष्का गदाः स्नायविका अपि।
पलायन्ते सुदूरं हि तार्क्ष्यत्रस्ता यथाऽहयः।।3।।
[101-3]
न्रिवृतादिमोदकः-
[101-4]
त्रिवृताममृतां द्राक्षां जातीकोषफलाभयाः।
जीवन्तीं मधुकं श्यामानन्तामिन्द्रवारूणीम्।।4।।
[101-4]
[101-5]
अब्दमिन्दीवरं वह्निं मधुकं मागधीं मुराम्।
चन्द्रशूरं च सूक्ष्मैलां शङ्खिनीं चविकां तथा।।5।।
[101-5]
[101-6]
चूर्णाङ्घ्रिमानां विजयां शुद्वां बीजविवर्ज्जिताम्।
सितां सर्वद्विगुणितां निकुम्भेन्धनवह्निना।।6।।
[101-6]
[101-7]
यथाशास्त्रं भिषक् पक्तवा मोदकं परिकल्प्य च।
प्रयुञ्ज्यात् पयसोष्णेन सायाह्ने शाणणात्रया।।7।।
[101-7]
[101-8]
मास्तिष्के दारूणे ब्याधौ स्नायुजे मारूतोद्भवे।
पित्तजे कफजे वाऽपि ग्रहण्यां विकृतेऽनले।।8।।
[101-8]
[101-9]
क्लीबतायां ज्वरे जीर्णे दुष्टे रजसि रेतसि।
प्रयोज्यो देवदेवोक्तो मोदकस्त्रिवृतादिकः।।9।।
[101-9]
अमृतादिण्डूरम्-
[101-10]
अमृता निम्बभूनिम्बौ बृहती विश्वभेषजम्।
रजन्यौ मधुकं मूर्वा माञ्जिष्ठा मदभञ्जिनी।।10।।
[101-10]
[101-11]
श्रीप्रसूनं पाटला च तथैव जलपिप्पली।
समानि समभागनि मण्डूरद्विगुणं ततः।।11।।
[101-11]
[101-12]
मण्डूरादष्टगुणिते मूत्रेऽमूनि विपाच्य च।
कर्षप्रमाणं मधुना सह सेवेत मानवः।।12।।
[101-12]
[101-13]
मास्तिष्कानामयान् सर्वान् वातपित्तकफोत्थितान्।
मण्डूरममृताद्येतन्तिहन्त्येव न संशयः।।13।।
[101-13]
पञ्चामृतलौहगुग्गुलुः-
[101-14]
रसगन्धकचाराभ्रमाक्षिकाणां पलं पलम्।
लौहस्य द्विपलं चापि गुग्गुलेः पलसप्तकम्।।14।।
[101-14]
[101-15]
मर्दयेदायसे पात्रे दण्डेनाप्यायसेन च।
कटुतैलसमायोगाद्यामद्वयमतन्द्रितः।।15।।
[101-15]
[101-16]
माषमात्रप्रयोगेण गदा मस्तिष्कसंभवाः।
स्नायुजा वातजाश्चापि विनश्यन्ति न संशयः।।16।।
[101-16]
[101-17]
यं पञ्चामृतलौहाख्यो गुग्ग्लुर्न हरेद्गदम्।
नासौ संजायते देहे मनुष्याणां कदाचन।।17।।
[101-17]
अभयादिगुग्गुलुः-
[101-108]
अभयाऽऽमलकी द्राक्षा शताह्ना ब्रह्नयष्टिका।
शारिवे द्वे मञ्जिष्टा निशा दारूनिशा वचा।।18।।
[101-18]
[101-19]
शिथिलं वाससा बद्वं गुग्गुलुमष्टमुष्टिकम्।
सार्द्वद्रोणे जले पक्तवा पादशेषेऽवतारयेत्।।19।।
[101-19]
[101-20]
ततस्तं गुग्गुलुं तस्मिन् क्काथतोये पुनः पचेत्।
सिद्वप्राये क्षिपेत्पाके मुशलीं मधुकं मुराम्।।20।।
[101-20]
[101-21]
चातुर्जातं विडङ्गं च देवपुष्पं दुरालभाम्।
त्रिवृतां त्रायमाणां च त्र्यूषणं च पलोन्मितम्।।21।।
[101-21]
[101-22]
अभयादिरसौ हन्ति गुग्गुलुः स्नायुसम्भवान्।
मास्तिष्कानपि रोगांश्च मधुना सह सेवितः।।22।।
[101-22]
धान्रीघृतम्(बहत्)
[101-23]
धात्रीफलस्य शाल्मल्या बृहत्या वासकस्य च।
शतावर्या विदार्याश्च प्रस्थमानेन चाम्भसा।।23।।
[101-23]
[101-24]
कल्कैः करिकणाकृष्णाकक्कोलककसेरूभिः।
खलिनीखदिराभ्याञ्च खण्डिकेन च खण्डिना।।24।।
[101-24]
[101-25]
गदागदाभ्यां गन्धेन गोस्तन्या गोपकन्यया।
घनाघनघनाभ्याञ्च घनाघनघनस्वनैः।।25।।
[101-25]
[101-26]
पयसा च पयस्विन्या पक्ववा प्रस्थमितं घृतम्।
प्रयुञ्ज्यात्पयसोष्णेन प्रातरक्षप्रमाणतः।।26।।
[101-26]
[101-27]
मास्तिष्कानखिलान् व्याधीन् स्नायुदोषसमुद्भवान्।
रक्तपित्तं क्षयं क्लैव्यं कासश्वासानिलामयान्।।27।।
[101-27]
[101-28]
उग्मादञ्च भ्रमं मूर्च्छां धात्रीघृतमिदं महत्।
सप्ताहमभ्यवहृतं निराकुर्यान्न संशयः।।28।।
[101-28]
लक्ष्मीविलासतैलम्-
[101-29]
शतावर्या विदार्याश्च कदल्या गोक्षुरस्य च।
नारिकेलस्य धात्र्याश्च कूष्माण्डस्याम्बुना पृथक्।।29।।
[101-29]
[101-30]
मस्तुना काञ्जिकेनापि लाक्षायाः सलिलेन च।
छागेन पयसा कल्कैः शटीचम्पकमुस्तकैः।।30।।
[101-30]
[101-31]
बलाबिल्वाशवगन्धाभिर्बृहत्या वासकेन च।
चन्दनद्वयमञ्जिष्ठाश्यामाऽनन्तानिशायुगैः।।31।।
[101-31]
[101-32]
मधुकेन मधुकेन पझकोत्पलबालकैः।
यमान्या च प्रसारण्या गन्धद्रव्यैस्तथाऽखिलैः।।32।।
[101-32]
[101-33]
एकादश्यां पूजयित्वा लक्ष्मीनारायणौ शुचिः।
तैलं तिलसमुद्भूतं पचेन्मौनी जितेन्द्रियः।।33।।
[101-33]
[101-34]
मस्तिष्कस्नायुजान् घोरान् गदान् मेहाश्च विंशतिम्।
वातव्याधीनशेषांश्च मूर्च्छोन्मादावपस्मृतिम्।।34।।
[101-34]
[101-35]
ग्रहणीं पाण्डुतां शोषं क्लीबतां वातशोणितम्।
मूढगर्भं रजोदोषं दोषं शुक्रगतं तथा।।35।।
[101-35]
[101-36]
तैलं लक्ष्मीविलासाख्यं नाशयित्वाऽऽशु वै बलम्।
पुष्टिं कान्तिं धृतिं मेधां जनयेन्नात्र संशयः।।36।।
[101-36]
मस्तिष्करोगे पथ्यापथ्यम्-
[101-37]
यदन्नपानं स्नायूनां परमं पुष्टिकृत्स्मृतम्।
सारकं स्वादु सुजरं क्षीरं मांसरसः सुरा।।37।।
[101-37]
[101-38]
एतत् सर्वन्तु पथ्यं स्यादपथ्यं त्वितरत् समम्।
अतो विचार्यैव भिषक् सेवयेत्त्याजयेदपि।।38।।
[101-38]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोदाधिकारे मस्तिष्क-
रोगसामान्यचिकित्साप्रकरणम्।।101।।
`अथथांशुघातरोगचिकित्साप्रकरणम्।।102।
तस्य कारणम्-
[102-1]
प्रचण्डण्डांशुकरैर्यदैव
प्रतप्तशीर्षः पुरूषस्तदैव।
वपुर्विमर्दो ननु देहिनोंऽशु-
घातभिधो व्याधिरूदेति तस्मिन्।।1।।
[102-1]
[102-2]
भूम्नाऽयमुग्रतपहेतुतः सदा
स्यांदशुघातः खलु दुर्बलादिषु।
उष्णप्रदेशेषु तथैव भूमे-
रार्द्रत्वतः स्थैर्यत एव वायोः।।2।।
[102-2]
[102-3]
उष्णानि कार्याण्यनिशं प्रकुर्व-
त्स्वेतत्प्रभावान्मनुजेषु नूनम्।
ग्रीष्मप्रचण्डांशुनिषेविषूपा-
नदातपत्रादिमनाश्रितेषु।।3।।
[102-3]
[102-4]
निर्वातकारालयमास्थितेषु
प्राधान्यतो योद्धृजनेष्ववश्यम्।
संजायते प्राणिवपुर्विमर्दो
घेरे गदः सद्भिषजां मतेन।।4।।
[102-4]
तस्य लक्षणम्-
[102-5]
अस्यांशुघातस्य गदस्य वैद्यै-
स्तिस्त्रस्त्ववस्थाः परिकीर्त्तिता वै।
शीताभिधाऽऽद्या चान्तगता हि तीव्रा।।5।।
[102-5]
[102-6]
क्लिन्नत्वशीतत्वसमन्विता त्वग्
मूर्च्छा श्रमः स्यादथ दुर्बलत्वम्।
तीव्रत्वमुक्तं ननु नाडिकाया-
स्तत्रादिमायां हि रूजो दशायाम्।।6।।
[102-6]
[102-7]
अस्यां दशायां नहि जातु मृत्युः-
प्रदृश्यते रोगिजनस्य नूनम्।
चिकित्सया जीवनमेव रोगी
दृत्कार्यरोधात्तु लभेत मृत्युम्।।7।।
[102-7]
[102-8]
तथा द्वितीया दशां गतस्यां-
शुघातिनो मूर्ध्नि भवेद्वि शूलम्।
पीडाऽपि शुष्कत्वमथोष्णता च
त्वचो धमन्याञ्चपलत्वमुक्तम्।।8।।
[102-8]
[102-9]
क्षीणत्वमेवं बहुदुर्बलत्वं-
दृच्छ्वासयोरप्यतिनिश्चयेन।
मूर्च्छाऽऽदिचिह्नानि भवेयुरत्र
प्रायेम पूर्वोक्तदशासमानि।।9।।
[102-9]
[102-10]
एवं दशामाप्नुवतोऽन्तिमां च
ज्वरस्तु तीव्रः श्वसं प्रलापः।
भवेद्गदार्त्तस्य च नीलवर्णता
संन्यासरोगो मरणं तथाऽन्ते।।10।।
[102-10]
असाध्यलक्षणम्-
[102-11]
करद्वयेऽङिघ्रद्वितये नीलिमा
तथा धमन्याः क्षणलुप्तता च।
विक्षेपणं चावयवस्य रोगिणोऽ-
शुघातिनो मृत्युकृते भवन्ति।।11।।
[102-11]
अशुंघातस्य चिकित्सा-
[102-12]
अङ्गवरणवासांसि दूरे निक्षिप्य यत्नतः।
प्रच्छाये प्रवहद्वाते गन्धाढये मनसः प्रिये।।12।।
[102-12]
[102-13]
विविक्ते व्यक्तनभसि विहङ्गगणनादते।
शीतलैर्मृदुलैः पर्णैः पझदप्रभवैरपि।।13।।
[102-13]
[102-14]
विस्तीर्णायां सुशय्यायां शाययेदंशुघातिनम्।
ततस्तस्य हरेतस्वेदं तालवृन्तभवानिलैः।।14।।
[102-14]
[102-15]
पझरम्भादलोशीरव्यजनैस्तं च वीजयेत्।
शीतवारिपरीषेकं विदध्याच्च मुहुर्मुहुः।।15।।
[102-15]
[102-16]
सचन्दनं च सलिलं स्वल्पमेव प्रपायेत्।
पिपालाऽऽर्त्तंन सहसा पाययेदम्बु वाऽधिकम्।।16।।
[102-16]
[102-17]
दाहोष्णतानिरासार्थं सर्वमङ्गं रोगिणः।
शीतलाम्भोऽधिकार्द्रेणाम्बरेणाच्छादयेद्भिषक्।।17।।
[102-17]
[102-18]
सहस्त्रघारया स्नानमंशुतापामयापहम्।।18।।
[102-18]
[102-19]
दन्तीतैलेन संप्रोक्तं हितकॉं रेचनमुत्तमम्।
अंशुघातगदार्त्तस्य विङ्विबन्धे भिषग्वरैः।।19।।
[102-19]
[102-20]
सिक्तमत्युष्णानीरेण गुरूर्णामयमम्बरम्।
ततो निहृचनीरं च श्रीवासस्नेहाबन्दुभृत्।
कदुष्णमेव घाटयां संस्थाप्यान्येन वाससा।।20।।
[102-20]
[102-21]
अनार्द्रेणाथवा रम्भादलः कोमलबन्धनम्।
दाहावझि विधातव्यं विधानं भिषजेदृशम्।।21।।
[102-21]
[102-22]
एवंविधेन विधिना तन्मूर्च्छा द्रागपेत्यपि।
अन्ते गदी सुखं पकृातस्थो भवेद् भृशम्।।22।।
[102-22]
[102-23]
यदाऽङ्गोष्मविनाशः स्यात् किंवा नाडीव्यतिक्रमः।
तदा तदपनोदार्थं युक्त्या स्वेदनमाचरेत्।।23।।
[102-23]
[102-24]
पाययेच्च यथामात्रं मृतसंजीवनीं सुराम्।।24।।
[102-24]
रत्नेश्वररसः-
[102-25]
वज्रं वैक्रान्तमभ्रं च रससिन्दूरमाक्षिके।
सुवर्णं मौक्तिकं तारं सममिक्षुभवाम्भसा।।25।।
[102-25]
[102-26]
शतावरीविदार्योश्च स्वरसाभ्यां पृथक् पृथक्।
विभाव्य वटिकाः कार्या भिषग्भी रक्तिकोन्मिताः।।26।।
[102-26]
[102-27]
त्रिफलाऽम्वनुपानेन प्रयोक्तव्याः प्रयत्नतः।
मस्तिष्कस्नायुसंभूतान् गदान् रत्नेश्वरो रसः।
निहन्यादंशुघातं च विशेषान्नात्र संशयः।।27।।
[102-27]
महाशिशिरपानकम्-
[102-28]
सिता द्विपलिका ग्राह्या चन्दनं चैकतोलकम्।
जम्बीरस्य तथा वर्याः स्वरसश्च पृथक् पलम्।।28।।
[102-28]
[102-29]
शाणकं मधुरीतैलमर्द्वप्रस्थमिते जले।
संमिश्रय सामलोडय स्तोकमात्रं पुनः पुः।।29।।
[102-29]
[102-30]
अंशुघातगदाक्रान्तं पाययेत् सुखदं हि तत्।
महाशिशिरनामेदं पानकं हरिणोदितम्।।30।।
[102-30]
[102-31]
अंशुघातेऽपि कुशला वैद्या मूर्च्छाविनाशिनीम्।
क्रियां सर्वां प्रकुर्वन्ति रोगिणः सुखहेतवे।।31।।
[102-31]
[102-32]
अंशुघाते निवृत्तेऽपि मिथ्याहारविहारिणः।
अपस्मारादयः प्रायो जायन्ते बहवो गदाः।।32।।
[102-32]
[102-33]
तन्मुक्तोऽतो हितं नित्यं सेवेताबलाभतः।
मनःप्रीतिप्रदं कर्म विदधीत निरत्नरम्।।33।।
[102-33]
[102-34]
अन्नपानादिकं स्निग्धं बलदं पुष्टिदं सरम्।
हितं स्यादंशुघातिभ्यो विपरीतं न शर्मकृत्।।34।।
[102-34]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारेंऽशुघातरोग-
चिकित्साप्रकरणम्।।102।।
अथ योषाऽपतन्त्रकचिकित्साप्रकरणम्।।103।।
तस्य कारणाम्-
[103-1]
रक्तक्षयाद्वा बहुशोऽप्यजीर्णा-
दुद्वैगतः कोष्ठविबन्धतो वा।
शोकाच्च भङ्गन्मानसो जरायो-
र्विकारतोऽथो रजसो विनाशात्।।1।।
[103-1]
[103-2]
कुटुम्बिनीनिष्ठुरभावतो वा।
दौर्बल्यतोऽपि प्रकृतेः कदाचित्।
पत्युश्च निस्नेहतया तरूण्या-
वैधव्यशोकादथवा विशेषात्।।2।।
[103-2]
[103-3]
[103-4]
योषित्सु रोगो यत एष कष्टदः प्रजायते मानसदेहतापनः।
प्कराशितोभूमितले तु योषाऽपतन्त्रकाह्नोबहुरोगदोऽसौ
वदन्त्यनेके भिषजस्तु योषाऽपस्मारमेतं तु निदानविज्ञाः
यावत्प्रवृत्ती रजसः स्त्रियां स्यात्
तावद्गगस्यास्य मतो हि कालः।।
[103-3]
[103-4]
तस्य पूर्वरूपम्-
[103-5]
हृत्पीडनं जृम्भणमङ्गचित्तयोः
सदाऽवसादो भवतीह योषिताम्।
अव्यक्तरूपं गदितं तु योषाऽ-
पतन्त्रकाख्ये हि गदे भिषग्भिः।।5।।
[103-5]
तस्य लक्षणम्-
[103-6]
चिह्नान्यनेकानि विचित्ररूपाण्यपि प्रजायन्त इवेत्यवेहि।
ध्यानंभवेद्यस्य गदस्ययत्रस्यात्तत्रतस्याक्रमणांविशेषात्।।6।।
[103-6]
[103-7]
किंवा क्कचिद्रोगिणि यानि चिह्ना-
न्याकर्णितान्यप्यवलोकितानि।
सर्वाणि तानि स्युरिहापि योषा-
ऽपतन्त्रकाह्ने हि महागदेऽपि।।7।।
[103-7]
[103-8]
तथाऽपि चिह्नानि विशोषतोऽस्मिन्
स्युर्यानि दृष्टान्यखिलानि तानि।।
विविच्य सौकर्यकृते चिकित्सा-
विधावयं वच्मि भिषग्जनानम्।।8।.
[103-8]
[103-9]
वैचित्यमाक्रंदनरोदने च भ्रन्तिः प्रलापो मतिविभ्रमश्च
द्वेषः सदा ज्योतिषि चोद्वता स्यादाक्रोश उच्चैर्हसनंचकंठे।।9।।
[103-9]
[103-10]
श्लेष्माशये पीडनमङ्गमध्ये
सहानुभूतिः क्कचन व्यथायाः
स्पर्शोत्थशक्तोरपि वृद्विभावः-
श्वासस्य कृच्छ्रत्वमथोदराच्च।।10।।
[103-10]
[103-11]
यावद्गलंचानृतगुल्मरोगोत्पत्तिस्तुमूर्च्छाऽत्रमतिप्रणाशः
योषित्सु जायन्त इमानि चिह्नान्यनारतं प्रायश एव लोके।।11।।
[103-11]
तस्य परिणतिः-
[103-12]
[103-13]
[103-14]
[103-15]
यैःकारणैरेष गदः प्रजायते प्रयाति शान्तिं विरतेषु तेषु
अतः परिस्थित्यनुसारतोऽस्यास्याल्लोकमध्येकमध्येपरिणाम एव
दैवात्कदाचिद्यदिकारणानां स्थितिर्भवेत्तर्हिगदप्रवृद्विः
एवं निवृत्तेऽपिच हेतुवृन्देरोगस्यशान्तिर्नियताप्रदृश्यते
काचिन्नानारीमृतिमेतिरोगे वयोविवृद्वौस्वतएषशाम्यति
विपर्ययोऽपिप्रकृतेःकदाचिज्जायेतनार्या इतियन्नदृश्यते।
ततो गदस्यास्य भवेन्मुहुर्मुहुः प्रायः सदैवाक्रमणं नृलोक
इत्यं यथामत्यधुना तु योषापतन्त्रकाह्वस्यनिदानमुक्तम्
[103-12]
[103-13]
[103-14]
[103-15]
तस्य चिकित्सा-
[103-16]
धातुपुष्टिकरं यद् यत् पानमन्नं च भेषजम्।
कोष्ठशुद्विकरं तद्वत्तत्तदत्र हितं मतम्।।16।।
[103-16]
[103-17]
मूर्ध्नि नेत्रद्वये सेको मूर्च्छीयां शीतलाम्भसा।
अपि शीर्षविरेकस्तन्निवृत्त्यै योज्य एव हि।।17।।
[103-17]
[103-18]
मूर्च्छाऽपस्मारयोरूक्तं यद् यद् भेषजमुत्तमम्।
तत्तदत्र यथादोषं भिषक् सर्वं प्रयोजयेत्।।18।।
[103-18]
[103-19]
दरायुदोषं सर्वं च निराकुर्याद् यथाविधि।
योषाऽपतन्त्रकः शाम्येत् सान्त्वनैः प्रियदानतः।।19।।
[103-19]
भूतभैरवरसः(बृहत्)
[103-20]
सुवर्णबस्मनः स्वर्णसिन्दूरस्यांशयुग्मकम्।
मुक्ताविद्रुमकान्तायोरादपट्टं पृथक् पृथक्।।20।।
[103-20]
[103-21]
एकभागमितं ग्राह्यं मर्द्यं कन्याऽम्बुनाऽपि च।
मण्डूकपर्णोसंभूतरसेनापि यथाविधि।।21।।
[103-21]
[103-22]
गन्धर्वहस्तपत्रैश्च संवेष्टय दिवसत्रयम्।
धान्यराशौ यथायुक्ति स्थापयेत्तत्तु गोलकम्।।22।।
[103-22]
[103-23]
ततो निष्काश्य तस्माद्वि वल्लमात्रां वटीं चरेत्।
वरासितासमोपेतां वटीमेकां तु शीलयेत्।।23।।
[103-23]
[103-24]
अथवा पयसा साकं भूतोन्मादापहां शुभाम्
विनिहन्ति बृहद्भूतभैरवो सर एष हि।।24।।
[103-24]
[103-25]
योषाऽपतन्त्रकं घोरमपस्मारं मदं तथा।
मूर्च्छां च विविधा वातसंभवा वेदना द्रुतम्।।25।।
[103-25]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे योषाऽप
तन्त्रकचिकित्साप्रकरणम्।।103।।
अथ योनिकण्डूच्कित्साप्रकरणम्।।104।।
तस्या निदानम्-
[104-1]
योनौ प्रायः श्लेष्मवैगुण्यहेतो-
रर्शः कोपाद्वस्तिजातेऽर्बुदेऽपि।
योनिस्थानां संप्रसारात्सिराणां-
किंवां नारीणां विकाराज्जरायोः।।1।।
[104-1]
[104-2]
पुंसा सार्द्वं सर्वदाऽतिप्रसङ्गा-
त्प्रायः काले चार्त्तवस्य प्रवृत्तेः।
गर्भस्य प्रागुद्भवे वातल्तवाद्
योनेः कण्डूर्जायते योनिमध्ये।।2।।
[104-2]
[104-3]
एवं नारीवृद्वतातो विशेषात्
प्रोक्तं वैद्यैर्योनिकण्डूनिदानम्।।3।।
[104-3]
योनिकण्डूलक्षणम्-
[104-4]
योनौ कण्डूर्यौनिकण्डूगदे स्यात्
तोदो रौक्ष्यं शुष्कता चापि नूनम्।
वृद्विर्व्याधेरूष्णतातोऽपि शैत्या-
च्छान्तिर्लोके वैद्यवर्येः प्रदिष्टा।।4।।
[104-4]
तस्याश्चिकित्सा-
[104-5]
योनिकण्डूगदिन्यै तु स्निग्धं दत्त्वा विरचनम्।
बल्यं रसायनं योज्यं भेषजं चास्त्रदोषहॄत्।।5।।
[104-5]
[104-6]
सारिवे द्वे त्रिवृल्लोध्रं तथा च गजपिप्पलीम्।
निक्काथ्य पाययेन्नीरं योनिकण्डूरूजाऽर्दिताम्।।6।।
[104-6]
शुभकरी वटी-
[104-7]
आफूकामृतसारायोविडमुस्तं समांशकम्।
संमर्द्यानलनीरेण माषोन्मानां वटीं चरेत्।।7।।
[104-7]
[104-8]
वटीं शुभकरीयं सद्योनिकण्डूनिखण्डिनी।।8।।
[104-8]
शिलाजत्वादिचूर्णम्-
[104-9]
शिलाजतु च सौभाग्यं वांशी लवणपञ्चकम्।
अनलं पझकं नीलोत्पलं शुण्ठीं च मुस्तकम्।।9।।
[104-9]
[104-10]
द्राक्षां गुडूचीं जीवन्तीं मधुकं चन्दनद्वयम्।
संचूर्ण्य वारिणा नारीं कण्डूशान्त्यै तु पाययेत्।।10।।
[104-10]
[104-11]
योनिकण्डूगदे योनौ शीतलाम्भोऽभिषेचनम्।
स्नेहः स्वेदो विधेयश्च बस्तिश्चोत्तरसंज्ञितः।
योनिव्यापद्गदप्रोक्तं चाखिलं भेषजं हितम्।।11।।
[104-11]
पथ्यापथ्यम्-
[104-12]
वातानुलोमनं यच्च सुपच वह्निदीपनम्।
यदन्नपानं तत् सेव्यं त्याज्यं चान्यत् प्रयत्नतः।.12।।
[104-12]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे योनि-
कण्डूचिकित्साप्रकरणम्।।104।।
अथाण्डाधाररोगचिकित्साप्रकरणम्।।105।।
तस्य निदानम्-
[105-1]
अतिव्यवायादतिशीतसेवना-
त्तथाऽभिघाताद्विषभोजनादपि।
अथो कुपथ्याशनतो गदोऽण्डा-
धारः प्रजायेत सदाऽङ्गनासु।।1।।
[105-1]
तस्य लक्षणम्-
[105-2]
उरूव्यथोरूदरमध्यसंस्था कृच्छ्राल्पते मूत्रगते सरक्तता।
अरोचकत्वं त्वरतिर्बलक्षयो ज्वरश्च हृल्लास इहोद्भवेयुः।।2।।
[105-2]
[105-3]
क्षुद्रा सवेगा धमनी च जिह्ना
रक्तोज्ज्वला स्यादनिशं गदिन्याः।
बोध्यानि चिह्नानि भिषग्भिरण्डा-
धारामयस्येति सुभाषितानि।।3।।
[105-3]
तस्य चिकित्सा-
[105-4]
यदन्नपानं बलकृद् यच्च वातानुलोमनम्।
अण्डाधारगदे तत्तत् प्रयोक्तव्यं भिष्दवरैः।।4।।
[105-4]
पटोलादिक्काथः-
[105-5]
पटोलं मधुकं मूर्वा द्राक्षा शुण्ठी विडं बला।
पीतमूली च धन्याकं रास्ना चेन्द्रयवास्तथा।।5।।
[105-5]
[105-6]
त्रिजातकं लवङ्गं च कणाद्वन्द्वं निशाद्वयम्।
क्काथयित्वा पिबेत्तोयमण्डाधारगदातुरा।।6।।
[105-6]
[105-7]
क्षौद्रेण चामृतं सेव्यमण्डाधारगदे हितम्।।7।।
[105-7]
योषिद्वल्लभो रसः-
[105-8]
सिन्दूरं व्योमतारं च वैक्रान्तस्वर्णटङ्गणम्।
वराऽम्भसा विभाव्यैव वल्लमात्रा वटीश्चरेत्।।8।।
[105-8]
[105-9]
योषिद्वल्लभन माऽयं रसोऽण्डाधारसंभवान्।
निहन्ति सकलान् व्याधीन् हर्यक्षो हरिणानिव।।9।।
[105-9]
चन्दनादिचूर्णम्-
[105-10]
चन्दनद्वितयं मूर्वा नीलन्यैलाद्वयं मुरा।
कणाद्वयं त्रिवृद् द्राक्षा मांसी मधुकमुस्तकम्।।10।।
[105-10]
[105-11]
तत्सर्वं चैव संचूर्ण्य डिम्बाधारगदापहम्।
क्षीरेणोष्णेन गदिनी पिबेन्नित्यं सुखार्थिनी।।11।।
[105-11]
पथ्यापथ्यम्-
[105-12]
पथ्यमत्र हविर्दुग्धं शालिः प्रत्नो यवस्तिलः।
छगमांसरसश्चैव द्रव्यमुग्रं न शर्मणे।।12।।
[105-12]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे `विद्योतिनी'
नामिकायां भाषाटीकायामण्डाधाररोग-
चिकित्साप्रकरणम्।।105।।
अथापमुमूर्षुचिकित्साप्रकरमम्।।106।।
अपमुमूर्षुलक्षणम्-
[106-1]
जलादिमध्ये ननु मज्ज नेन पाशादिनोद्वनोद्वन्धनतो गलेवा।
श्वासावरोधाद् यदि मर्त्तुमिच्छुः प्रोक्तः सएवापमुर्षुरेवा।।1।।
[106-1]
[106-2]
श्वासरोधो मतो हेतुर्मरणे मज्जनादिना।
अतः श्वासे समानीते प्राणी प्राणिति यत्नतः।।2।।
[106-2]
[106-3]
ष्णः कायोऽस्ति वै यावदङ्गानि शिथिलानि च।
तावच्चिकित्सा कर्त्तव्या प्रायो दण्डान्ततो मृतिः।।3।।
[106-3]
जसमग्नचिकित्सा-
[106-4]
कलशस्यापि पृष्ठेऽवाङ्मुखं नरमतिद्रुतम्।
वारिमग्नं शाययेद्वि युक्त्याऽऽस्यान्निः सरेज्जलम्।।4।।
[106-4]
[106-5]
जलमग्नं समुत्थाप्य व्यवलम्ब्यार्द्ववर्ष्म च।
मुखान्निः सारयेत्तोयं कफं लालां च निर्हरेत्।।
जनतां वारयेत् तत्र यथा वायुर्न दुष्यति।।5।।
[106-5]
लुप्तश्वासस्य पुनरानयनविधिः-
[106-6]
शयितस्यास्य पार्श्वे तु तीव्रं नस्यं नसि क्षिपेत्।
अङ्गल्या संस्पृशेत् कण्ठं श्लक्ष्णेन दारूणाऽथवा।.6।।
[106-6]
[106-7]
अनेन विधिना वेगे क्षवस्य वमनस्य वा।
जाते श्वासः समायाति विपन्नश्चापि जीवतिः।।7।।
[106-7]
[106-8]
मुखं वक्षश्च संघृष्य तत्र शीताम्बसेचनम्।
कुर्याच्छ्वासस्तथाऽऽयाति विपन्नश्चापि जीवति।।8।।
[106-8]
[106-9]
एवंश्वासो न चेदायाद्भिषक् कुर्यात्क्रियामिमाम्।
श्वासक्रियाप्रवृत्त्यर्थं जितहस्तः कृतक्रियः।।9।।
[106-9]
[106-10]
कृत्वाऽवाक्शायिनं वैद्यस्तथोपधानवक्षसम्।
पार्श्वे ततः शाययित्वा हस्तयुग्मं प्रपीडयेत्।।10।।
[106-10]
[106-11]
षङ्घा वा सप्तधा कुर्यात् पलमध्ये क्रियामिमाम्।
यावच्छ्वासो न चायाति नाथवा मृत्युनिश्चः।।11।।
[106-11]
[106-12]
कृत्वोपधानपृश्ठं वा तमुत्तानं प्रशाययेत्।
ततश्ताकर्षयेज्जिह्नां कर्षद् बाहुं स्वयं तथा।।12।।
[106-12]
[106-13]
शीर्ष्णः समीप आसीनः कुर्याद्वस्तावुरोगतौ।
षट्कृत्वः सप्तकृत्वो वा पले कुर्यात्क्रियामिमाम्।
यावच्छ्वासो न चायाति अथवा मृत्युनिश्चयः।।13।।
[106-13]
[106-14]
श्वासो नायाति यद्येवंयत्नतः सक्थिनी भुजौ।
विमर्द्य यत्नतश्चोर्ध्वं रूक्षस्वेदं च कारयेत्।।14।।
[106-14]
[106-15]
निखिलैः कर्मभिश्चैवं श्वासे वृत्ते च जीवति।।15।।
[106-15]
[106-16]
प्राप्तश्वासं ततश्चैनमन्नपानं बलप्रदम्।
भोजयेत्पाययेच्चापि मृतसंजीवनीं सुराम्।।16।।
[106-16]
[106-17]
निद्रावेगे स्वास्वयेच्च स्वास्तीर्णे शयने शुभे।
पथ्येन वर्त्तयेच्चापि प्रयत्नेन भिषग्वरः।।17।।
[106-17]
उद्वन्धनापमुमूर्षुचिकित्सा-
[106-18]
अनेनैव विधानेन चिकित्सोत्कुशलो भिषक्।
उद्बन्धनविमुक्तं च श्वासस्यानयनादिना।।18।।
[106-18]
[106-19]
रज्जुं कण्ठस्य संछिद्य सर्पिषोष्णेन मर्दयेत्।
सम्यग्वातप्रवाहार्थं तालवृन्तं प्रचालयेत्।।19।।
[106-19]
[106-20]
चैतन्ये पुनरायाते द्रव्यं पथ्यं प्रदापयेत्।
यावत्सम्यग्बलं न स्याच्छ्रमादिभ्यश्च वारयेत्।।20।।
[106-20]
भयवज्रपतनगादिपातसंमूर्च्छितानां चिकित्सा-
[106-21]
भयादत्युत्कटाद्वाऽपि वज्राग्निपरितापतः।
नष्टसंज्ञं चिकित्सेच्च पूर्वरीत्यनुसारतः।।21।।
[106-21]
[106-22]
बज्राग्निपरितप्तस्य क्रियाऽतिशीतला हिता।
वृक्षादिपतितञ्चापि चिकित्सेदेवमेव हि।।22।।
[106-22]
इति भैषज्यरत्नावल्यां विशिष्टरोगाधिकारे
ऽपमुमूर्षुचिकित्साप्रकरणम्।।106।।
इति भैषज्यरत्नावल्यालयो भिषजां मुदाम्। सम्पूर्णा संस्कृता ब्रह्नशङ्करेणाधिकाशिकम्।।
उपसंहारः
इतियं वैद्यवशंवदेन कविना स्द्वैद्यराजेश्वरं, श्रीराष्ट्रेशमर्चितं सकरूणं श्रीसत्यनारायण।
नत्वा संकलिता पुरऽतिललिता गोविन्ददासैस्तु या, सा संस्कृत्य परैश्च रत्ननिचयीर्नूत्नैश्च प्रत्नैरियम्।।1।।
वस्वाकाशनभोऽम्बकोन्मितमहीभृद्विक्रमादित्यकृद्-वर्षे श्रीगुरूपूर्णिमाऽन्वितदिने सन्मङ्गलं तन्वती।
सर्वेषां भिषजां भृशं सपरिशिष्टेष्टा विशिष्टा सतां-संप्रत्येव समापिता ननु मया भैषज्यरत्नावली।।2।।
ग्रन्थसस्कर्त्तुः परिचयः-
श्रीराधारमणाङ्घ्रिसारसरसास्वादपरसक्तात्मनां-श्रीगौराङ्गपदप्रवर्त्तितपथस्थानामितानां दिवम्।
स्वातन्त्र्यं समस्ततन्त्रनिचये सत्यं श्रितानां गुरू-श्रीदामोदरशाश्त्रिणां चरणयोर्गस्वामिनां प्रेमिणा।।3।।
तत्स्थाने वसता सुखं श्रितवता विद्याविलासं चिरात्-काशीवासरतेन हिन्दुजनतासेवाप्रसक्तात्मना।
श्रीमद्रामचरित्रभूसुरमणोः पोष्यात्मजेनात्मज-ज्येष्ठेन व्रजमोहनाह्वविदुषां श्रीबान्धवीसूनुना।।4।।
रासेश्वर्यभिधात्मजासहितया पत्न्याऽन्वितेन ब्रजे-श्वर्या श्रीव्रजाराचारूचरणाम्भोजद्वयीभक्तया।
विद्यार्थिब्रजदुःखदारणकृते श्रोणीतले तत्परे-णायुर्वेदविचारणाश्रयणिना मिश्रेण चानुक्षणम्।।5।।
श्रीरामार्चिकपङ्क्तिपावनमहीदेवान्वयेऽत्युत्तमे-`बस्ती'मण्डलमअध्यवर्तिनि शुभे `मिश्रौलिया' नामके।
बस्तीभूपतिदत्त आवसथ एवात्तात्मना गौतम-श्रीब्रह्नान्वितशंकराह्वयभिषग्रत्नेन यत्नेन हि।।6।।
धन्यवादाः-
धन्योऽनन्यतमोऽधिभारतमतीवायुर्विदाखण्डलो, यश्चरके चिरं चरणयोः कारूण्यतः सद्गुरेः।
खायतः पण्डित अगमेषु विविधेष्वन्येष्वपि प्रायशः, शिष्यत्राणपरायणः सकरूणः श्रीसत्यनारायणः।।7।।
तस्यैकान्तकृपावशेन हि मया प्रत्यूहसङ्घं कथं-चित्संछिज्य समापि चायधिनगरि श्रीकाशिकायामियम्।
श्रीराजेश्वरदत्तशास्त्रिसरणिं गङ्गासहयस्य सत्-साहाय्यं सुमहत् सदा श्रितवता हाराणचन्द्रस्य च।।8।।
अस्मात्तद् भिषदिज्यातां गततमैः सम्पादितानुत्तमै-कान्तकैतवसंततोपकृतिभिर्नम्राननेनाधुना।
तेभ्ये हार्दिकधन्यवादनिवहाः स्थाने स्वयं सादरं. दीयन्ते ननु केवलं तु नमता तत्पादपझान्यलम्।।9।।
यश्चात्रामरभारतीत्रगवचीसद्भावसंसेवना-दाप्तव्यापितदिङ्मुखाप्तपुरूषस्तुत्योरूकीर्त्तिः स्वतः।
सभ्यश्रीहरिदाससूनुमहितश्रीकृष्णदासस्तुत-श्रेष्ठिश्रीजयकृष्णदास उदितो विद्याविलासाधिपः।।10।।
स भ्रातृत्रयपुत्रपौभसहितो यन्त्रालये त्वात्मनो-ग्रन्थं चैतमपि प्रकाश्य बहुशो द्रव्यव्ययेनाधुना।
आयुर्वेदविदां व्यधादुपकृतिं यत् तत्कृते सांप्रत. साशीःसन्तति धन्यवादविषयो निःसंशयो नः सदा।।11
क्षमाप्रार्थना-
या काचन त्रुटिततिर्मतिदोषजाता, स्यादन्र मत्कृतिगता कृतिमात्रलक्ष्या।
स्वीयेव सा प्रकृतितो नितरां सदायु-र्वेदावबोधनिपुणैर्ननु मर्षणीया।।12।।
अभिलाषः-
यद्येनयाऽभिनवसंस्कृतमूर्त्तिमत्या-कृत्य भवेदुपकृतिर्भिषजां च काचित्।
तर्हि प्रहृष्टमनसः सप्रकाशकस्य संस्कारकस्य च भवेत् सफलः श्रमोऽपि।।13।।
समर्पणम्-
श्रीचन्द्रशेखरधरप्रिय!वैद्यरत्न!,श्रीचन्द्रशेखरधर!न्रिदिवस्थित! त्वम्।
औदुम्बरीं गुणततिं तु वितत्य लोके, लोकातिशायियशआप्तिकृते प्रसिद्व!।।14।।
मद्वैद्यकादिमगुरो! गुरूकिङ्गराय, त्वद्ब्रह्नशंकरजनाय नताय नूनम्।
विद्याविलासशतो घृतमूर्त्तिमेता-मादेहि देह्यपि शुभाशिषमाशु मह्यम्।।15।।
इति शम्।
------------------
अथ भैषज्यरत्नावली-परिशिष्टम्
अथ पित्तरोगचिकित्साप्रकरणम्।।1।।
मङ्गलाचरणम्-
[1-1]
प्रणम्य सत्यं दधतं तु सात्य-
नारायणं शास्त्रिणमादरेण।
भैषज्यरत्नावलिगं तनोमि
सचामतीष्टं परिशिष्टमेतत्।।1।।
[1-1]
तन्रादौ पित्तरोगाः-
[1-1]
अकालपलितं नेत्ररक्तता मूत्ररक्तता।
नेत्रस्य पीतता तद्वन्मूत्रस्यापि च पीतता।।1।।
[1-1]
[1-2]
मलस्य पीतता प्रोक्ता नखानामपि पीतता।
दन्तानां चापि पीतत्वं वपुषस्तथा।।2।।
[1-2]
[1-3]
तमसो दर्शनं चापि परितः पीतदर्शनम्।
निद्राऽल्पतादि शोषश्च मुखे गन्धश्च लौहवत्।।3।।
[1-3]
[1-4]
मुखस्य तिक्तता चापि तथा च वदनाम्लता।
उच्छ्वासस्योष्णता चापि धूमोद्गारस्तथैव च।।4।।
[1-4]
[1-5]
भ्रमः क्लमस्तथा क्रोधो दाहो भेदसमन्वितः।
तेजोद्वोषश्च शीतेच्छा ह्यतृप्तिररतिस्तथा।।5।।
[1-5]
[1-6]
भक्षितसय विदाहश्च जठरानलतीक्ष्णता।
रक्तप्रवृत्तिर्विड्भेदः पुरीषस्योष्णता तथा।।6।।
[1-6]
[1-7]
मूत्रोष्णता मूत्रकृच्छ्रं शुक्राल्पत्वं तनूष्णता।
स्वेदस्यापि च दौर्गन्ध्यं देहप्रदरणं तथा।।7।।
[1-7]
[1-8]
शरीरस्यावसादश्च पाकश्च वपुषस्तथा।
चत्वारिंशदमी पित्तव्याधयो मुनिभिर्मताः।
एषां चिकित्सा बोद्वव्या स्वस्वप्रकरणे बुधैः।।8।।
[1-8]
धान्रीलौहम्-
[1-9]
धात्रीचूर्णस्याष्टौ पलानि चत्वारि लौहचूर्णस्य।
यष्टीमधुकरजश्च द्विपलं दद्यात् पटे घृष्टम्।।9।।
[1-9]
[1-10]
अमृताक्कथेनैतद् भाव्यं चूर्णं तु सप्ताहम्।
चण्डातपे सुशुष्कं भूयः पिष्ट्वा नवे घटे स्थाप्यम्।।10।।
[1-10]
[1-11]
घृतेन मधुना युक्तं बोजनाद्यन्तमध्यतः।
त्रीन् वारान् भक्षयेन्नित्यं पथ्यं दोषानुबन्धतः।।11।।
[1-11]
[1-12]
भक्तस्यादौ नाशयेच्च दोषान् पित्तकृतानपि।
मध्ये चानाह-विष्टम्भं तथाऽन्ते चाग्निमन्दताम्।
रक्तपित्तसमुद्भूतान् रोगान् हन्ति न संशयः।।12।।
[1-12]
पित्तान्तकरसः-
[1-13]
जातीकोषफले मांसी कुष्ठं तालीशपत्रकम्।
माक्षिकं च मृतं लौहमभ्रं दिव्यं समांशिकम्।।13।।
[1-13]
[1-14]
सर्वतुल्यं मृतं तारं समं निष्पिष्य वारिणा।
द्विगुञ्जाभा वटी कार्या पित्तरोगविनाशिनी।।14।।
[1-14]
[1-15]
कोष्ठाश्रितं च यत्पित्तं शाखथितमथापि वा।
शूलं चैवाम्लपितं च पाण्डुरोगं हलीमक्।
[1-15]
[1-16]
दुर्नाम भ्रान्तिवन्ती च क्षिप्रमेव विनाशयेत्।
रसः पित्तान्तको ह्येष काशिराजेन भाषितः।।16।।
[1-16]
महापित्तान्तकरसः-
[1-17]
यद्यत्र माक्षिकं त्यक्तवा सुवर्णमपि दीयते।
महापित्तान्तको नाम सर्वपित्तविनाशनः।।17।।
[1-17]
पित्तरोगे पथ्यम्-
[1-18]
सर्पिःपानविर्धरेचनमसॉङ्मोक्षः सिताः शालयो-
गोधूमास्तृणधान्यकानि चणका मुद्गा मसूरा यबाः।
मण्डः पर्युषितृः पयांसि च पयः पेटीक्षवो माक्षिकं-
लाज धन्वरसा घृतानि च सिता शीतोदकं चौद्भिदम्।।
कर्कोटं कदलं च कण्टकिफलं वेत्राग्रमाषाढकं-
मृद्वीका कुलकं च कोमलतरं कूष्माण्डमेर्वारूकम्।
तुम्बी पर्पटकोऽल्पमारिषदलं काठिल्लकं दाडिमं-
धात्रि कोमलतालसस्यमभया खर्जूरमौदुम्बरम्।।19।।
[1-19]
[1-20]
बिम्बश्चापि कषायतिक्तमधुराः सेव्यं मधूकं वरी-
कांस्ययोरजतं च हेम कटुका निम्बस्त्रिवृच्चन्दनम्।
हर्म्य भूमिगृहं सुशीतलवनं धारागृहं चन्द्रिका-
रम्भाऽम्भोरूहनव्यपत्रशयनं शीताः प्रदेहा अपि।।20।।
[1-20]
[1-21]
भूशय्या मणयः प्रदोषसमयो गीतं प्रियालिङ्गनं-
स्नानं मित्रसमागमः प्रियकथा मन्दानिलोऽम्बुक्षणम्।
वादित्रश्रवणं मनोमतरा भावाः सुलास्येक्षणं-
पुन्नादोत्पलपाटलाऽब्जसुमनः कल्हारपुष्पाणि च।।21।।
[1-21]
[1-22]
कर्पूरं च प्रतीरनीरमखिला शीता क्रिया चाश्रितं
पानाहारविहारभेषजमिदं पित्तं प्रशान्तिं नयेत्।।22।।
[1-22]
पित्तरोगेऽपथ्यम्-
[1-23]
धूमः स्वेदनमातपो निधुवनं संधारणं क्रोधवत्-
क्षारोऽध्वा गजवाजिवानविधिलस्तीक्ष्णानि कर्माणि च
व्यायमोऽन्नविदाहकारपिलमयो ग्रीष्मो विरूद्वाशनं-
मध्याह्नो जलदात्ययोऽपि रजनी मध्यं च मध्यं वयः।।23।।
[1-23]
[1-24]
व्रीहिर्वोणुफलं तिलोऽपि लशुनं माषः कुलात्थो गुडो-
निष्पावो मदिरातसी प्रहिजलं धान्याम्लमुष्णोदकम्।
जम्बीरं नलदाम्बु हिङ्गुः लकुचं मूत्राणि भल्लातकं-
ताम्बूलं दधि सर्षपोऽपि बदरं तैलाशनं तिन्तिडी।।24।।
[1-24]
[1-25]
कट्वम्लं लवणं विदाहि च भिषङ्मुख्यैः सुनिर्धारितं-
पानाहरविहारभेषजमिदं पित्तप्रकोपे विषम्।।25।।
[1-25]
इति भैषज्यरत्वावलीपरिशिष्टे पित्तरोगचिकित्सा-
प्रकरणम्।।1।।
अथ भैषज्यरत्नवाली-परिशिष्टम्
अथ कफरोगचिकित्साप्रकरणम्।।2।।
तन्रादौ कफरोगाः-
[2-1]
प्रथमं मुखमाधुर्यं तथैव मुखलिप्तता।
मुखप्रसेकश्च तथा निद्राधक्यं तथैव च।।1।।
[2-1]
[2-2]
कण्ठे घुर्घुरता कटुकाङ्क्षोष्णकामिता।
बुद्विमान्द्यमचैतन्यमालस्यं तृप्तिरेव च।।2।।
[2-2]
[2-3]
अग्निमान्द्यं मलाधिक्यं मलशौक्ल्यं तथैव च।
मूत्राधिक्यं मूभशौक्ल्यं शुक्राधिक्यं तथैव च।।3।।
[2-3]
[2-4]
स्तैमित्यं गौरवं शैत्यमेत एव हि विंशतिः
योगतो रूढितः प्रोक्ता मुनिभिः श्लैष्मिका गदाः।।
एषां पृथक् चिकित्सोह्या स्वस्वप्रकरणे बुधैः।।5।।
[2-5]
कफप्रशमनोपायाः-
[2-6]
कफश्चितो हि शिशिरे वसन्तेऽर्कांशुतापितः।
हत्वाऽग्निं कुरूते रोगास्तत्र तत्र प्रयोजयेत्।।6।।
[2-6]
[2-7]
तीक्ष्णं वमननस्यादि कवलग्रहमञ्जनम्।
व्यायामोद्वर्त्तनं धूमं शौचकार्ये सुखोदकम्।।7।।
[2-7]
[2-8]
कफकोपनिरासार्थं वह्निसेवमुत्तमम्।
वमनं नावनं रूक्षद्रव्यसेवनमीरितम्।।8।।
[2-8]
[2-9]
विविः सुरतानन्दः संश्रमः कऱवारणः।
कटुक्षाराम्लकाः सेव्याः शोधनं कफसंभवे।।9।।
[2-9]
कफचिन्तामणिरसः-
[2-10]
हिङ्गुलेन्द्रयवं टङ्गं त्रैलोक्यबीजमेव च।
मरिचं च समं सर्वं सूतभस्म त्रिभागिकम्।।10।।
[2-10]
[2-11]
आर्द्रकम् रसेनैव मर्दयेद् याममात्रकम्।
कफरोगं निहन्त्याशु भास्करस्तिमिरं यथा।।11।।
[2-11]
कफकेतुरसः(बहुत्)-
[2-12]
मुक्तासुवर्णेचसमानभागे प्रवालभस्मापि तयोः समानम्।
अभ्रंच योज्यं द्विगुणं प्रवालात्-
स्वर्णोत्थसिन्दूररसं विकल्पय।।12।।
[2-12]
[2-13]
दुग्धेन नार्या वमलाश्मपात्रे यत्नेन मर्द्यं कुशलैभिषग्भिः।
गुञ्जात्रयं चास्य कफप्रकोपे सेवेत सद्यः कफनाशमिच्छन्।।13।।
[2-13]
महाश्लेष्मकासानलरसः-
[2-14]
हिङ्गुलसंभवं सूतं शिलागन्धकटङ्गणम्।
ताम्रं वङ्गं तथाऽभ्रं चस्वर्णाक्षिकतालकम्।।14।।
[2-14]
[2-15]
धूस्तूरं सैन्धवं कुष्ठं पिप्पली हिङ्गु कट्फलम्।
दन्तीबीजं सोमराजी वनराजफलं त्रिवृत्।।15।।
[2-15]
[2-16]
वज्रीक्षीरेण समर्द्य वटिका कारयेद्भिषक्।
कलायपरिमाणां तु खादेदेकां यथाबलम्।।16।।
[2-16]
[2-17]
संनिपातं निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
मत्तसिंहो यथाऽर्ण्य मृगाणां कुलनाशनः।।17।।
[2-17]
[2-18]
तथाऽयं सर्वरोगाणां सद्यो नाशकरो महान्।।18।।
[2-18]
श्लेष्मशैलेन्द्ररसः-
[2-19]
पारदो गन्धको लौहं त्र्यूषणं जीरकद्वयम्।
शटी श्रृह्गी यमानी च पौष्करं चार्द्रकं तथा।।19।।
[2-19]
[2-20]
गैरिकं यावशूकं च टङ्गणं गजपिप्पली।
जातीकोषोऽजमोदा च वरायासलवङ्गकम्।।20।।
[2-20]
[2-21]
कनकारूणबीजानि कट्फलं चव्यकं तथा।
प्रत्येकं तोलकं चैषां श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्।।21।।
[2-21]
[2-22]
पाषाणे विमले खल्वे घृष्टं पाषाणमुद्गरैः।
बिल्वमूलरसं दत्त्वा चार्कचित्रफलत्रिकम्।।22।।
[2-22]
[2-23]
निर्गुण्डी गणिका वासा चेन्द्राशनं प्रचोदनी।
धुस्तूरः कृष्णाजीरं च पिप्पली पारिभद्रकः।।23।।
[2-23]
[2-24]
एतेषां च रसैर्मर्द्यमार्द्रकैश्च विभावयेत्।
उष्णातोयानुपानेन सर्वव्याधिं विनाशयेत्।।24।।
[2-24]
[2-25]
विंशतिं श्लैश्मिकान् रोगान् संनिपातभवान् गदान्।
उदराष्टकदुर्नाममामवातं च दारूणम्।।25।।
[2-25]
[2-26]
पञ्चपाण्ड्वामयान् दोषान् क्रिमिस्थौल्यमथो नृणाम्।
यथा शुष्केन्धने वह्निस्तथैवाग्निविवर्द्वनः।।26।।
[2-26]
धुस्तूरतैलम्-
[2-27]
धुस्तूरक्काथकल्काभ्यां कटुतैलं विपाचयेत्।
संनिपातज्वरश्लेष्मशोतशीर्षार्त्तिदाहनुत्।
कर्णग्रहहरं चास्थिसन्धिग्रहविनाशनम्।।27।।
[2-27]
कनकतैलम्-
[2-28]
कनकार्कबला दूर्वा वासको वैजयन्तिका।
निर्गुण्डी पूतिका भार्गोनिकोठकपुनर्नवा।।28।।
[2-28]
[2-29]
बदरीविजयापत्रं श्रीफलं बृहती तथा।
चित्रकं च स्नुहीमूलमग्निमन्थो व्यडम्बकम्।।29।।
[2-29]
[2-30]
बृहद्भण्डी मागधी च पत्रमारग्वधस्य च।
प्रत्येकं द्विपलं चैषां गृह्णीयात्तत्क्षणादपि।।30।।
[2-30]
[2-31]
जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम्।
प्रस्थं च कटुतैसस्य पाचयेत्तीव्र वह्निना।।31।।
[2-31]
[2-32]
द्रव्याण्येतानि सर्वाणि कल्कितानि प्रदापयेत्।
चक्षुःशूलं शिरःशूलं श्लीपदं मांसरक्तजम्।।32।।
[2-32]
[2-33]
आमवातं च हृच्छूलं वृद्विं च गलगण्डकम्।
शोथं बाधिर्यमुदरं कासं हन्ति न संशयः।।33।।
[2-33]
[2-24]
दूर्वायां पतिते बिन्दौ शुष्कतां याति तत्क्षणात्।
कनकाख्यमिदं तैलं कफरोहकुलान्तकम।।34।।
[2-34]
कफरोगे पथ्यम्-
[2-35]
छर्दिर्लङ्घनमञ्जनंनिधुवनं प्रोद्वर्त्तनं स्वेदनं-
चिन्ता जागरणं श्रमोऽतिगमनं तृङ्वेगसंधारणम्।
गण्डूषः प्रतिसारणं प्रधमनं हस्त्यश्वयानक्रिया
धूमः प्रवारणं नियुद्वमतिसंक्षोभोऽपि नस्यं भयम्।।35।।
[2-35]
[2-36]
रूक्षोष्णा विधयः पुरतनभवा ये शालयः षष्टिका-
निष्पावस्तृणधान्यकं च चणका मुद्गाः कुलत्थायवाः।
क्षारः सर्षपतैलमुष्णसलिलं धन्वामिषं राजिका।
वेत्राग्रं कुलकं कठिल्लकफलं वार्ताकुमौदुम्बरम्।।36।।
[2-36]
[2-37]
कर्कोटं लशुनं च मोचकुसुमं शक्राशनं शूरणो-
निम्बो मूलकपोतिका च वरूणस्तिक्ता त्रिवृन्माक्षिकम्।
ताम्बूलं नलदाम्बु जीर्णमदिरा व्योषं वरा गोजलं-
लाजाश्चापि सुभॉष्टतण्डुलभवं भक्तं सुखोष्णालयः।।37।।
[2-37]
[2-38]
कांस्यायोऽञ्जनमौक्तिकं च कचुकस्तिक्तः कषायो रसः।
पानाहारविहारभेषजमिदं श्लेष्माणमुग्रं जयेत्।।38।।
[2-38]
कफरोगेऽपथ्यम्-
[2-39]
स्नेहोऽभ्यञ्जनमासनाह्नि शयनं स्नानं विरूद्वाशनं
पूर्वाह्णः शिशिरो वसन्तसमयो रात्र्यादिराद्यं वयः।
भक्तादौ च नवान्नापानकरणं माषा नवास्तण्डुला-
मत्स्यं मांसमपीक्षुदुग्धविकृतिस्तालास्थिमज्जाद्रवाः।।39।।
[2-39]
[2-40]
पेया भव्यमुपोदिका च पनसं छत्राकमाषाढकं-
खर्जूराण्यनुलेपनान्यपि पयःपेटीयाः पायसः।
स्वाद्वम्लं लवणं गुरूणि तुहिनं संतर्पणं चाश्रितं
पानाहारविहारभेषजमिदं स्माच्छ्लेष्मकोपे विषम्।।40।।
[2-40]
इति भैषज्यरत्नावलीपरिशिष्टेकफरोग-
चिकित्साप्रकरणम्।।2।।
अथ भैषज्यरत्नावली-परिशिष्टम्
अथानुभूतयोगप्रकरणम्।।3।।
[3-1]
अथानुभूता ये योगाः श्रीराजेश्वरशास्त्रिणाम्।
प्रत्ना नूत्नाश्च ते सर्वे लिख्यन्ते भिषजां मुदे।।1।।
न्रैलोक्ततापहरः(नवीनज्वरे)योo रo-
[3-2]
सूतशुल्बत्रिवृता बलितिक्तादन्तिबीजचपलाविषतिन्दुः
पथ्यया सह विचूर्ण्य समांशं हेमवारिसहितं दिनमेकम्।।2।।
[3-3]
वल्लयुग्मवटिकाऽऽर्द्वकवारा नाशयेदभिनवज्वरमाशु।
विश्वतापहरणेऽत्र तु पथ्यं मुद्गषसहितं लघुभुक्तम्।।3।।
न्रिभुवनक्कीर्त्तिरसः(वातपित्तज्वरे)योo रo-
[3-4]
हिङ्गुलं च विषं व्योषं टङ्कणं मागधीशिफाम्।
संचूर्ण्य भावयेत् त्रेधा सुरसार्द्रकहेमभिः।।4।।
[3-5]
रसस्त्रिभुवनकीर्त्तिर्गुञ्जैकार्द्ररसेन वै।
विनाशयेज्ज्वरान् सर्वान्संनिपातांस्त्रयोदश।।5।।
चन्दनाद्यर्कः(पित्तज्वरेऽन्तर्दाहे तृषायां च)अo भूo-
[3-6]
श्वेतं च चन्दनं तद्वद् रक्तचन्दनमुत्तमम्।
पर्पटो धान्यकं निम्बमूलत्वक् पझकं तथा।।6।।
[3-7]
किराततिक्तश्चोशीरं महाश्रावणिका तथा।
बृहदेला च तरूणीकुसुमं च पृथक् पृथक्।।7।।
[3-8]
एकभागं द्विभागा च गुडूची कुट्टितं समम्।
एकत्र षोडशगुणे नीरे यामचतुष्टयम्।।8।।
[3-9]
प्रक्षिप्य यत्नतो रक्षेत्ततस्तद् बकयन्त्रतः।
स्त्रावयेद्रसमच्छं हि भिषग्वर्यो यथाविधि।।9।।
[3-9]
[3-10]
अन्तर्दाहे तृषायां च ज्वरे पित्तसमुद्भवे।
यथामात्रं संप्रयोज्यश्चन्दनाद्यर्क एष हि।।10।।
[3-10]
तिक्तावटी(कफपित्तज्वरे)चिकित्सादर्शो-
[3-11]
तिक्तारजः कारवेल्लदलोद्भवरसेन हि।
भावयित्वा विदध्याच्च प्रतिमा वटीः।।11।।
[3-11]
[3-12]
ततो वटीद्वयं प्रातर्मध्याह्ने सायमादरात्।
गण्डूषप्रमितेनाद्यत्सुखोष्णेनैव वारिणा।।12।।
[3-12]
[3-13]
एवं कृते सति गदी कफपित्तज्वराकुलः।
सुखी भवेदिति भिषग्राजराजेश्वरोदितम्।।13।।
[3-13]
सप्तपप्णसत्त्वादिवटी(विषमज्वरे)अo भूo-
[3-14]
सप्तपर्णभवं सत्त्वं कटुकासत्त्वमेव च।
कुपीलुसत्त्वं सत्त्वं च यवतिक्ताभवं समम्।।14।।
[3-14]
[3-15]
दशतोलकमितं ग्राह्यं प्रत्येकं द्रव्यवेदिभिः।
सर्वं संचूर्ण्यं यत्नेन सर्वचूर्णसमं सुधीः।।15।।
[3-15]
[3-16]
करञ्जबीजमज्जानं तत्र संमिश्रयेद् भिषक्।
एतत्सर्वं जलेनैव खल्ले संमर्दयेत्ततः।।16।।
[3-16]
[3-17]
कलायसंनिभाः कार्याः वटयोऽनातपशोषिताः।
यथावश्यकतं चास्य वटयोका वा वटीद्वयम्।।17।।
[3-17]
[3-18]
त्रिवारं वा चतुर्वारं प्रत्यहं चोष्णवारिणा।
किंवा सेव्या जलेनैव विषमज्वरिणा मुदा।।18।।
[3-18]
[3-19]
कथितेयं सप्तपर्ण-सत्त्वादिवटिका शुभा।
विषमज्वरनाशार्थमनभूय भिषग्वरैः।।19।।
[3-19]
बिल्वादिचूर्णम्(प्रवाहिकायमामतीसारे)अनुo-
[3-20]
बिल्वपेशी तथा भङ्ग विशुद्वाऽथ महौषधम्।
धात्रीपुष्पं धान्यकं च सर्वं च समभागिकम्।।20।।
[3-20]
[3-21]
चतुर्भागमिता ग्राह्या शतपुष्पा विशेषतः।
एतत्सर्वं च संगह्य श्लक्ष्णचूर्णं च कारयेत्।।21।।
[3-21]
[3-22]
इदं बिल्वादिचूर्णं स्यात् तूर्णं पूर्णं हितप्रदम्।
प्रवाहिकातिसरणामयिनां शरणं परम्।।22।।
[3-22]
[3-23]
चतुर्माषकतो यावत् षण्माषकमिहान्वहम्।
द्विवारं वा त्रिवारं वा यथावश्यकतं मुदा।।23।।
[3-23]
[3-24]
जलेन सह सेव्यं वा गदिना तण्डुलाम्भसा।
इति राजेश्वरः प्राह भिषग्राजेश्वरः सुधीः।।24।।
[3-24]
धातक्यादि चूर्णम्(अतीसारे प्रवाहिकायां च)अo भूo-
[3-25]
एको भागो धातकीपुषपजात-
स्तावानेव स्याद् रसः सर्जजोऽपि।
स्यातां भागौ द्वौ सितायश्च सर्वं
संचूर्ण्याथो वाससा शोधयेच्च।।25।।
[3-25]
[3-26]
हन्याच्चातीसारनिश्चरकौ द्राङ्
नाम्ना धातक्यादि चूर्णं तु तूर्णम्।
एको द्वौ वा माषकाश्च त्रयः स्या-
न्मात्रा चास्य प्रत्यहं द्वित्रवारम्।।26।।
[3-26]
कर्पूराम्ब(विसूचिकायामतीसारे च) अo भूo-
[3-27]
त्रिंशत्सेटकपानीयं कर्पूरं पञ्चतोलकम्।
प्रक्षिप्य चैकसप्ताहं संधानविधिना भिषक्।।27।।
[3-27]
[3-28]
घटे रक्षेत् प्रयत्नेन ततो वासोविशोघितम्।
कृत्वाऽतिसारिणे तद्वद्विसूच्या पीडितात्मने।।28।।
[3-28]
[3-29]
दद्यादिदं श्रुतं लोके कर्पूराम्बु यथाबलम्।
द्वितोलकात्समारभ्य यावत्स्यात् पञ्चतोलकम्।।29।।
[3-29]
[3-30]
मात्रा प्रकल्प्या संवीक्ष्य रोगिरोगसदाकृतिम्।
अनुभूतमिदं वैद्यैर्बहुशः शास्त्रवेदिभिः।।30।।
[3-30]
अर्शोघ्नोः धूमः (अर्शोरोगे)अo भूo-
[3-31]
पूतिपूगीफलं नारिकेलं च सरिदुद्गतम्।
विषतिन्दुकमेकत्र समं सर्वं विचूर्णयेत्।।31।।
[3-31]
[3-32]
अनेनार्शसि युक्त्यैव धूपनाद्वेदनाशमः।
भवेदर्शोघ्नधूमोऽयं राजेश्वरभिषङ्मतः।।32।।
[3-32]
अर्शोघ्नीवटी-(अर्शोरोगो) अo भूo-
[3-33]
एको भागो महानिम्बमज्ज्ञोऽथापि च निम्बजा।
फलमज्जा द्विभागा स्यद् द्विभागं च रसाञ्जनम्।।33।।
[3-33]
[3-34]
तृणकान्तमणेः पिष्टेरेको भागो विशेषतः।
रक्तबोलस्यैकभागः सर्वं संगृह्य यत्नतः।।34।।
[3-34]
[3-35]
संमर्दयेत् खल्वमध्ये वारिणा वैद्यसत्तमः।
ततो गुञ्जाफलमिता वटिकाः संप्रकल्पयेत्।।35।।
[3-35]
[3-36]
अम्भसैकां वटीं किंवा द्वे रक्तार्शासि प्रत्यहम्।
द्विवारं वा त्रिवारं वा यथायोग्यं प्रयोजयेत्।।36।।
[3-36]
[3-37]
इत्यर्शोघ्नी वटी नाम रक्तार्शःशान्तिकारिणी।
श्रीराजेश्वरदत्तेन वाद्यारजेन भाषिता।।37।।
[3-37]
अर्शोवेदनान्तकः(अर्शोरोगे)अo भूo-
[3-38]
शतधौकं घृतं गव्यमेकसेटकसम्मितम्।
दशकर्षमितश्चन्द्रः पोदिकासत्त्वमुत्तमम्।।38।।
[3-38]
[3-39]
तथा यवानिकासत्वं प्रत्येकं पञ्चकार्षिकम्।
संगृह्य प्रथमं सत्त्वे यवानीपोदिकाभवे।।39।।
[3-39]
[3-40]
कर्पूरं च समं सर्वं यावन्न द्रवतां व्रजेत्।
काचकूप्यां ततो पक्षेत् पिधायास्यं प्रयत्नतः।।40।।
[3-40]
[3-41]
द्रवीभूतं तु तत्सर्वमगवत्य भिषग्वरः।
शतधौतं घृतं संयोज्य स्थापयेत् सुधीः।।41।।
[3-41]
[3-42]
अर्शोवेदनयार्त्ताय सद्यः शान्तिप्रदायकम्।
उच्छूनार्शोऽतिसंकोचकारकोऽपि प्रकीर्त्तितः।।42।।
[3-42]
[3-43]
राजेश्वरानुभूतोऽयं नाम्नाऽर्शोवेदनान्तकः।
प्रयुज्यतामर्शसैस्तु निःसंदिग्धं मुदान्वितैः।।43।।
[3-43]
रूक्मिशो रसः(रक्तार्शसि, आनाहे, बिबन्धे)रo साo सo-
[3-44]
अभयाचूर्णमादाय नूतनैर्जयपालकैः।
पञ्चमांशेन मिलितैः स्नुहीदुग्धेन मर्दिताः।।44।।
[3-44]
[3-45]
गुडिकास्तस्य कर्त्तब्या वर्त्तुलाश्चणकप्रभाः।
एकैकस्यास्य टङ्गस्य रेचनैश्च रसैस्तथा।.45।।
[3-45]
[3-46]
रूक्मिशे न च दाहः स्यान्न मूर्च्छा भ्रमः क्लमः।
वेगतः सारयेदेषा विशेषादामनाशिनी।।46।।
[3-46]
[3-47]
निरूहेण तथा नैव तथा बिन्दुघृतेन च।
त्रिवृता न तथा रेच्या यथा स्याद् गुडिकोत्तमा।।47।।
[3-47]
[3-48]
अतिशुद्वो भवेद् देहो ह्यतिप्रबल उत्तमः।
अतिरूपी ह्यतिप्रौढश्चाप्यायुष्कर उत्तमः।.48।।
[3-48]
[3-49]
विष्टम्भे गुडिका देया चोदरे दारूणामये।
अधोदेशेषु सर्वेषु गुदेषु च महौषधिः।
दीयते क्षीयते सामः कामकायविवर्द्वनः।।49।।
[3-49]
अर्कवटी(अजीर्णे) चिकित्सादर्शो-
[3-50]
अर्कमूलत्वचः शुष्काश्चूर्णिताः श्लक्ष्णरूपतः।
तद्भागतुल्ये मरिचसैन्धवे च पृथक् पृथक्।।50।।
[3-50]
[3-51]
चूर्णितं चापि संगृह्य निम्बुद्रवविमर्दितम्।
कृत्वा वटीश्चणकवत् प्रतिहोरं यथाविधि।।51।।
[3-51]
[3-52]
अजीर्णत्रस्तचित्तस्तु सेवेत स्वास्थ्यलिप्सया।
इति सद्भिषजां राजा राजेश्वरबुधोऽन्वभूत्।।52।।
[3-52]
अर्कपुष्पादिवटिका(अग्निमान्द्ये उदरशूले च)अo भूo-
[3-53]
अर्कपुष्पसमुद्भूतमज्जा शद्वं च रामठम्।
शुद्वं रुपीलुकं चैव शुद्वं च नरसारकम्।।53।।
[3-53]
[3-54]
मरिचं चैव संगृह्य समभागेन चूर्णितम्।
जलेन सर्वं संपेष्य वटीं मरिचसांनिभाम्।।54।।
[3-54]
[3-55]
संपाद्य यत्नतो रक्षेन्मन्दोष्णेनैव वारिणा।
एकां द्वे वा सुवटिके शूले ह्युदरसंभवे।।55।।
[3-55]
[3-56]
वह्निमान्द्ये विशेषेण वैद्यवर्यः प्रयोजयेत्।
अनुभूताऽनिशं तस्मादस्मिन् ग्रन्थे प्रकाशिता।।56।।
[3-56]
कुबेराक्षवटी(अग्निमान्द्ये शूलरोगे च)अo भूo-
[3-57]
त्रयोः भागाः करञ्जम्य मज्ज्ञस्त्रिकटुसंभवम्।
भागत्रयं चैकभागः सौवर्चलभवस्तथा।।57।।
[3-57]
[3-58]
संचूर्ण्य सर्वमेकत्र वारिणा सह मर्दयेत्।
ततो द्विरक्तिप्रमिता वट्यः कार्या यथाविधि।।58।।
[3-58]
[3-59]
इयं कुबेराक्षवटी वारिणोष्णोन सेविता।
विनाशयत्यग्रमान्द्यं शूलं चोदरसंभवम्।।59।।
[3-59]
[3-60]
अस्य मात्रा प्रयोक्चब्या वटयेका वा वटीद्वयी।
द्विवारं वा त्रिवारं वा प्रत्यहं योद्यतावशात्।।60।।
[3-60]
अम्लिकासत्त्वादि चूर्णम्(आध्माने) अo भूo
[3-61]
भागस्य पञ्चमोंऽशः स्यादम्लिकासत्त्वसंभवः।
पोदिकासत्त्वजस्त्वष्टचत्वारिंशः प्रकीर्त्तितः।।61।।
[3-61]
[3-62]
द्वौ भागौ धान्यकस्यैको भागो जीरकसंभवः।
शुण्ठयाश्च शतपुष्पाया एको भागः पृथक् पृथक्।।62।।
[3-62]
[3-63]
सर्वाण्येतानि संगृह्य श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्।
ततः संमिश्रय संरक्षेत् काचकूप्यां यथाविधि।।63।।
[3-63]
[3-64]
इदं लोकेऽम्लिकासत्त्वादि चूर्ण पूर्णरूपतः।
निहन्यात्तूर्णमाध्मानं रूचिं कुर्याद्विशेषतः।.64।।
[3-64]
[3-65]
दीपनं जठरस्याग्रेः पाचकं परमं स्मृतम्।
अनुपानं जलं कोष्णं ज्ञेयमत्र भिषग्वरैः।।65।।
[3-65]
मधुयष्टयादिचूर्णम्(मृदुरेचने)-
[3-66]
मधुयष्टिर्द्विभागा स्यात्स्वर्णपत्र्यपि तादृशी।
शतपुष्पा दारूनिशा विशुद्वो गन्धकस्तथा।।66।।
[3-66]
[3-67]
प्रत्येकं त्वेकभागं स्यात्सप्तभागमिता सिता।
सर्वमेकत्र संचूर्ण्य क्षीरेणोष्णेन पाययेत्।।67।।
[3-67]
[3-68]
षण्माषकमितं चूर्णं शुखदं मृदुरेचनम्।
शास्त्रिराजेश्वरैरेतदनुभूतं विशेषतः।।68।।
[3-68]
कृष्णबीजादिचूर्णम्(मृदुविरेचने)अo भूo-
[3-69]
सुभृष्टं कृष्णबीजं स्यादष्टभागिकमुत्तमम्।
स्वर्णपत्र चतुर्भागा नागरं युग्मभागिकम्।।69।।
[3-69]
[3-70]
शतपुष्पा चैकभागा तरूणीपुष्पकं तथा।
एतत्सर्वं विचूर्ण्याथ वस्त्रपूतं विधाय च।।70।।
[3-70]
[3-71]
तत्र संमिश्रयेद् यत्नाद्वसुभागमितां सिताम्।
निम्बूकसंभवरसैर्भावयित्वा विधानतः।।71।।
[3-71]
[3-72]
संमर्दनाद्रजः शुष्कं कल्पयित्वा विधानविद्।
संरक्षेत्काचपात्रे तत् कृष्णबीजादिचूर्णकम्।।72।।
[3-72]
[3-73]
माषकत्रयतो यावत् षण्माषकमथम्भसा।
सेवनाद्गदिनामेतत् पाचनं मृदु रेचकम्।।73।।
[3-73]
षट्सकारचूर्णम्-
[3-74]
स्वर्णपत्री चतुर्भागा शिवा स्वल्पा द्विभागिकी।
सौवर्चलं सैन्धवं च शूण्ठी च शतपुष्पिका।।74।।
[3-74]
[3-75]
प्रत्येकं चैकभागं स्यात् सर्वमेकत्र चूर्णयेत्।
षट्सकारमिदं चूर्णं षण्माषकमितं सदा।।75।।
[3-75]
[3-76]
उष्णोदकेन संसेब्यं सुखदं रेचनं परम्।
शास्त्रिरादेश्वरैरेतत् परीक्षितमधिक्षिति।।76।।
[3-76]
वनप्सिकादिकषायकः-(प्रतिश्याते)-
[3-77]
वनप्सिकाप्रसूनं च गोजिह्वा मधुकं तथा।
खतमी चापि प्रत्येकं माषकत्रयसंमितम्।।77।।
[3-77]
[3-78]
श्लेष्मातकस्य बीजानि दिक्संख्यानि तथैव च।
उन्नाबकस्य बीजानि तदर्द्वान्यखिलानि च।।78।।
[3-78]
[3-79]
एकत्रैतानि संकुटय क्काथयेकुडवेऽम्भसि।
अर्द्वावशिष्टं विज्ञाय वस्त्रपूतं विधाय च।।79।।
[3-79]
[3-80]
शर्करां तत्र प्रक्षिप्य सुखमुष्णं च तं पिबेत्।
वनप्सिकादिको नाम कषायक इतीरितः।।80।।
[3-80]
[3-81]
प्रतिश्यायप्रशमने प्रयोगोऽयमनुत्तमः।
शास्त्रिराजेश्वरैः प्रायो बहुधैव परीक्षितः।।81।।
[3-81]
श्वासघ्रो धूमः(श्वासे)-
[3-82]
क्षुद्राबीजं कानकं च पत्रं छायाविशोषितम्।
यवानिका पारसीक-यवानी सोरकं निशा।।82।।
[3-82]
[3-83]
गञ्जा समांशतः सर्वं गृह्णीयात्तु यथाविधि।
सङ्कुटय किंचिन्मात्रं तत् स्थापयेद्यत्नतो भिषग्।।83।।
[3-83]
[3-84]
शास्त्रिराजेश्वररेतदनुभूतं निरन्तरम्।
श्वासावेगेऽतिकृच्छ्रे तु विषीदन्तमथातुरम्।।84।।
[3-84]
[3-85]
तद् धूमं पाययेत् किंवा घ्रापयेच्च यथाविधि।
तेन सद्यः श्वासकष्टान्मुक्तो भवति चामयी।।85।।
[3-85]
केशरवटी (श्वास-कासे) अ. भू.-
[3-86]
केशरं साधु काश्मीरमेकतोलकसंमितम्।
एलावलुकजं तोलद्वितयं चाभयाभवम्।।86।।
[3-86]
[3-87]
संचूर्णितं सर्वमिदं तरूणीपुष्पजाम्भसा।
संमर्द्य वटिकाः कार्याः शुभाश्चणकसंमिताः।।87।।
[3-87]
[3-88]
इयं स्यात्केशरवटी श्वासकासहितावहा।
किचिद्विरेचनी चास्या मात्रैका वटिकाम्भसा।।88।।
[3-88]
[3-89]
किंवा वटीद्वयी प्रातः सायं सेव्याऽऽमयाविना।
अनुभूता सुभिषजा नात्र कार्या विचारणा।।89।।
[3-89]
सुवर्णलतिकादितैलम्(वातव्याधौ) अo भूo-
[3-90]
ज्योतिष्मती शुभा सार्द्वद्विसेटकमिता ततः।
पञ्चाशत्कर्षतुलिता ग्रहणीया यमानिका।।90।।
[3-90]
[3-91]
आकारकरभं मेथी लवङ्गं च रसेनकम्।
प्रत्येकं मानतो ग्राह्यं कर्षाणां पञ्चविंशतिः।।91।।
[3-91]
[3-92]
मरिचं रक्तमप्यर्द्वसेटकोन्मितमुत्तमम्।
एषां कल्कन्तु विधिवद्विधाय स्थापयेद्भिषक्।।92।।
[3-92]
[3-93]
तचमाखुपत्रक्काथोऽथ कटुतैलं पृथक् पृथक्।
तुलाद्वयमितं नीत्वा सर्वमेकत्र पाचयेत्।।93।।
[3-93]
[3-94]
तैलं पक्कं तु विज्ञाय वाससा परिशोधयेत्।
इयं सुवर्णलतिकादिकं तैलमनुत्तमम्।।94।।
[3-94]
[3-95]
वातव्याधौ विशेषेण हितं तत्सेवितं सदा।
इति प्रायेण भिषजामनुभूतं सुनिश्चितम्।।95।।
[3-95]
अपतन्न्रहरी वटी (अपतन्न्रके)अo भूo-
[3-96]
कर्पूरं रामठं गञ्जा पारसीकयवानिका।
द्विद्वियुग्माष्टभागाः स्युः क्रमेणैषां यथाविधि।।96।।
[3-96]
[3-97]
चूर्णमेकत्र संगृह्य वारिणा मर्दयेद् भिषक्।
अत्र गोघृतसंभृष्टं रामठं ग्राह्यमुत्तमम्।।97।।
[3-97]
[3-98]
मरिचप्रमिता वटयो विधातव्याः प्रयत्नततः।
प्रातः सायं च संसेव्या वटिकैकाऽम्भसा शुभा।।98।।
[3-98]
[3-99]
एषाऽपतन्त्रहरणादपतन्त्रहरी वटी।
विख्याता चानुभूताऽपि श्रीराजेश्वरशास्त्रिभिः।।99।।
[3-99]
यावनरत्नेश्वरः(मूर्च्छोन्मादापस्मारेषु हृद्दौर्बल्यादिषु च)-
[3-100]
तृणाकान्तं च माणिक्यं मुक्तां मरकतं तथा।
विद्रमं पिष्टश्चैषां यथाविधि विनिर्मिता।।100।।
[3-100]
[3-101]
अग्निजारो निर्विषो च चूर्णं कौशयजं तथा।
द्वितोलकमितं ग्राह्यं प्रत्येकं तु भिषग्वैरः।।101।।
[3-101]
[3-102]
व्योमाश्मपिष्टिर्हरिणश्रृङ्गभस्म सुशोभनम्।
सामुद्रनारिकेलं च प्रत्येकं वेदतोलकम्।।102।।
[3-102]
[3-103]
कस्तूरी राजतं हैमं सूक्ष्मपत्रकमुत्तमम्।
एकतोलकमानं तु प्रत्येकं मर्दयेद्भिषक्।।103।।
[3-103]
[3-104]
तूरणीकुसुमोद् भूतेनार्केणैव प्रयत्नतः।
चतुर्दशदिनान्येवं परिभाव्य यथाविधि।।104।।
[3-104]
[3-105]
एकरक्तिमिताः कार्या वटिकाः शोभनास्ततः।
यथादोषानुरानेन योजनीया निरन्तरम्।।105।।
[3-105]
[3-106]
रत्नेश्वरो यावनोऽयं हृद्यो बल्यो विशेषतः।
शिरोभ्रमं च दृदयस्पन्दनं कष्टदं सदा।।106।।
[3-106]
[3-107]
अपनीय तथा सद्योह्द्बलं च विवर्द्वयेत्।
उन्मादमूर्च्छाऽपस्माररोगानपि विनाशयेत्।।107।।
[3-107]
[3-108]
मेधाविवर्द्वनो ननं हष्टो वारसहस्त्रशः।
जवाहराद्योऽयं ख्यातो मोहरान्तो विशेषतः।।108।।
[3-108]
[3-109]
यावने वैद्यके प्रोक्तो भिषग्वर्यैः प्रयुज्यते।।109।।
[3-109]
वृद्वदार्वाद्यं लौहम्(आमवाते)रo साo संo-
[3-110]
वृद्वदारूत्रिवृद्दन्तीगजपिप्पलिमाणकैः।
त्रिकत्रयसमायुक्तैरामवातन्तकं त्वयः।।110।।
[3-110]
[3-111]
सर्वानेव गदान् हन्ति केशरी करिणो यथा।।111।।
[3-111]
महानाराच रसः(गुल्मरोगे)रo साo संo-
[3-112]
ताम्रं सूतं समं गन्धं जैपालं च फलत्रिकम्।
कटुकं पेषयेत् क्षारैर्निष्कं गुल्महरं पिबेत्।
उष्णोदकं पिबेच्चानु नाराचोऽयं महारसः।।112।।
[3-112]
श्वेतपर्पटी(मून्रकृच्छ्रे) अo भूo
[3-113]
द्वौ भागौ शोरकस्याप्सु घोलयित्वा प्रपाचयेत्।
अवगत्य विलीनं तद् वाससा परिशोधयेत्।।113।।
[3-113]
[3-14]
तदर्द्वांशमितां तत्र स्फटिकां मिश्रयेत्ततः।
पुनस्तावत् पाचनीयं यावन्न घनतां व्रजेत्।।114।।
[3-114]
[3-115]
जाते घनत्वे कदलीपत्रोपरि निधापयेत्।
पत्रान्तरेण चाच्छाद्ये गुरूवस्तुनिपीडितम्।।115।।
[3-115]
[3-116]
विदध्यादथ विज्ञाय शीतलं तत्ततः पृथक्।
कृत्वा संस्थापयेत्काचपात्रे भैषज्यकोविदः।।116।।
[3-116]
[3-117]
दुग्धवद्वलाऽस्य स्याक्पर्पटी यत एव हि।
ततोऽसौ कथिता लोके भिषग्भिः श्वेतपर्पटी।।117।।
[3-117]
[3-118]
इयं तु मूत्रलात्यर्थं व्यर्थं याति न जातुचित्।
शीताम्भः शर्कराऽम्भो वाऽनुपानं चात्र कल्पयेत्।।118।।
[3-118]
वरूणाद्यं लौहम् (मून्रकृच्छ्रे) रo साo संo-
[3-119]
द्विपलं वरूणं धात्र्यास्तदर्द्वं धात्रिपुष्पकम्।
हरीतक्याः पलार्द्वञ्च पृश्निपर्णं तदर्द्वकम्।।119।।
[3-119]
[3-120]
कर्षमानञ्च लौहाभ्रं चूर्णमेकत्र कारयेत्।
भक्षयेत् प्रतरूत्थाय शाणमानं विधानवित्।।120।।
[3-120]
[3-121]
मूत्राघातं तथा घोरं मूत्रकृच्छ्रञ्च दारूणम्।
अश्मरीं विनिहन्त्याशु प्रमेहं विषमज्वरम्।।121।।
[3-121]
[3-122]
बलं पुष्टिकरञ्चैव वृष्यमायुष्यमेव च।
वरूणाद्यमिदं लौहं चरकेण विनिर्मितम्।।122।।
[3-122]
सर्पगन्धाचूर्णम्(रक्तचापे)अo भूo-
[3-123]
सर्पगन्धा श्लक्ष्णचूर्णं वस्त्रेम परिशोधितम्।
माषकैकं द्विमाषं वा घृतमिश्रं विधाय च।।123।।
[3-123]
[3-124]
भक्षयेत् प्रत्यहं प्रातः सायं चोन्मादरोगयुक्।
तेन निद्रा समुदयादुन्मादहितकृत् परम्।।124।।
[3-124]
[3-125]
भवेदिदं सर्पगन्धाचूर्णं तूर्णं न संशयः।
एतेन रक्तभारेऽपि न्यूनता जायते ध्रुवम्।।125।।
[3-125]
[3-126]
बहुष्वामयिषु प्रायः परीक्ष्य च मुहुर्मुहुः।
इति प्रोक्तं भिषग् राजेश्वरदत्तेन शास्त्रिणा।।126।।
[3-126]
चोपचीन्यादिकषायः(रक्तविकारे)अo भूo-
[3-127]
चोपचीन्यास्त्रयो भागा उशवा युग्मभागिकी।
सुरञ्जानस्य मिष्टस्य ग्राह्यं भागचतुष्टयम्।।127।।
[3-127]
[3-128]
चिरतिक्तस्य गोरक्षमुण्डया धात्रीफलस्य च।
मधुकस्य च तिक्तायाः शारिवायाः पृथक् पृथक्।।128।।
[3-128]
[3-129]
एको भागस्तथा द्राक्षा-भागाश्चत्वार एव च।
एतत्सर्वं तु संकुटय स्थापयेद्यत्नतो भिषग्।।129।।
[3-129]
[3-130]
अयं हि चोपचीन्यादिकषायो नाम विश्रुतः।
समस्तरक्तविकृतौ हितकृत्कोष्ठशुद्विकृत्।।130।।
[3-130]
[3-131]
ततस्तोलकमेकं वा तोलकद्वितयं तथा।
क्काथ्यद्रव्यं समादाय जलेऽष्टगुणिते पचेत्।।131।।
[3-131]
[3-132]
क्काथं पादावशेषं तमवतार्य च शोधयेत्।
शीते तस्मिस्तु प्रक्षिप्य मधुतोसकमुत्तमम्।।132।।
[3-132]
[3-133]
पाययेत्तं विशेषेम रक्तस्य विकृतौ भिषक्।
श्रीराजेश्वरदत्तेन भिषजेति प्रकीर्त्तितम्।।133।।
[3-133]
चन्दनादिवटी (पूयमेहे) अo भूo-
[3-134]
चन्दनोद्भवतैलस्य मधुसिक्तस्य च क्रमात्।
एकस्तथा त्रयो भागा ग्राह्याः सद्भिषजां गणैः।।134।।
[3-134]
[3-135]
अथ वह्नौ द्रवीकृत्य मधुसिक्थं सुवाससा।
संशोध्यं च ततस्तत्र तैलं चन्दनसम्भवम्।।135।।
[3-135]
[3-136]
सम्मेल्य चालयेद्दर्व्या यावन्न धनतामियात्।
धनीभूतेऽथ वटिका द्विरक्तिप्रमिताः शुभाः।।136।।
[3-136]
[3-137]
प्रकल्ष्या अगदङ्कारैः पूयमेहजिहीर्षया।
सेवनीयेयमनिशं चन्दनादिवटी श्रुता।।137।।
[3-137]
[3-138]
गोक्षुरस्य कषायेण द्वित्रिवारं तु प्रत्यहम्।
एकैका वटिका द्वे वा मात्राऽस्या वैद्यसम्मता।।138।।
[3-138]
[3-139]
अनुभूता सदा विद्भिरायुर्वेदस्य प्रायशः।
ततो हिताय जगतः कृपयैव प्रकाशिता।।139।।
[3-139]
बल्यं चूर्णं(स्वप्नमेहादौ)अo भूo
[3-140]
ब्बूलजं फलं चाव्धिशोषश्चाप्यष्टवर्गजम्।
द्रव्यं पृथक् पृथग् ग्राह्यं तदभावे यथाश्रुतम्।।140।।
[3-140]
[3-141]
तत्प्रतिनिधिरूपाणि द्रव्याणि तु भिषग्वरैः।
सालिबाह्वा सिता चापि शाल्मलेः कन्दमुत्तमम्।।141।।
[3-141]
[3-142]
तृणकान्तं च सूक्ष्मैलाबीजं कत्तीरकं तथा।
श्वेताऽपि मुशली ग्राह्यं प्रत्येकं चैकभागिकम्।।142।।
[3-142]
[3-143]
ईषद्गोलबीजतुषं चतुर्भागमितं शुभम्।
सर्वं संचूर्ण्य च श्लक्ष्णं सर्वचूर्णसमा सिता।।143।।
[3-143]
[3-144]
तत्र योज्या च भिषजा मात्रा चास्य द्विमाषिकी।
अनुरानं तु गोदुग्धमथवा शीतलं जलम्।।144।।
[3-144]
[3-145]
बल्यचूर्णमिदं तूर्णमपनीय विशेषतः।
वीर्यतारल्यमत्यर्थं गाढीकुर्याच्च तद् ध्रुवम्।।145।।
[3-145]
[3-146]
स्वप्नमेहसमुद्भूतभीतिव्यूहापरं महत्।
विश्वविद्यालयीयायुर्वोदविद्यालयेऽधुना ।।146।।
[3-146]
[3-147]
चरकाचार्यचुञ्चुश्रीशास्त्रिराजेश्वरैरिदम्।
सर्वदैवानुभूतं तद् योजयन्तु भिषग्वराः।।147।।
[3-147]
ताम्रेश्वरवटी(प्लीहरोगे) रo साo संo-
[3-148]
हिङ्गु त्रिकटुकञ्चैवापामार्गस्य च पत्रकम्।
अर्कपत्रं स्नुहीपत्रं तथा च समभागिकम्।।148।।
[3-148]
[3-149]
सैन्धवं तत्समं ग्राह्य लौहं ताम्रञ्च तत्समम्।
प्लीहानं यकृतं गुल्ममामवातं सुदारूणम्।।149।।
[3-149]
[3-150]
अर्शासि घोरमुदरं मूर्च्छापाण्डुहलीमकम्।
ग्रहणीमतिसारञ्च यक्ष्माणं शोथमेव च।।150।।
[3-150]
क्षारगुडिका (शोथे) रo साo संo-
[3-151]
क्षारद्वयं स्याल्लवणानि पञ्च।
चक्वार्ययोव्योषफलात्रिकञ्च।
सपिप्पलीमूलविडङ्गसारं
मुस्ताजमोगामरदारूबिल्वम्।।151।।
[3-151]
[3-152]
कलिङ्गकश्चित्रकमूलपाठे
यष्टयाह्वयं सातिविषं पलाशम्।
सहिङ्गुकर्षं त्वतिसूक्ष्मचूर्णं
द्रोणं तथा मूलकशूण्ठकानाम्।।152।।
[3-152]
[3-153]
स्याद्भस्मनस्तत् सलिलेन साध्य-
मालोडय यावद् घनमप्यग्धम्।
स्त्यनं ततःकोलसमाञ्च मात्रां
कृत्वा तु शुष्कां विधिना प्रयुज्ज्यात्।।153।।
[3-153]
[3-154]
प्लीहोदरं श्वित्रहलीमकार्शः-
पाड्वामयारोचकशोथषोषान्।
विसूचिकागुल्मगराश्मरीश्च
सश्वासकासान् प्रणुदेत् सकुष्ठान्।।154।।
[3-154]
[3-155]
सौवर्चलं सैन्धवञ्च विडमौद्भिदमेव च।
सामुद्रलवणञ्चात्र जलमष्टगुणं भवेत्।।155।।
[3-155]
अस्थिसंहारतैलम्(अभिवाते)अo भूo-
[3-156]
अस्थिसंहारजं कल्कं कुडवोन्मितमुत्तमम्।
स्वरसं च चतुःप्रस्थं प्रस्थं तैल तिलोद्भवम्।।156।।
[3-156]
[3-157]
सर्वमेकत्र संगृह्य तैलपाकविधानविद्
पाचयेदय संसिद्वं तैलं संस्थापयेद् भिषक्।।157।।
[3-157]
[3-158]
अभिघातजपीडायाः शामकं त्विदमुत्तमम्।
अस्थिसंहारतैलं हि श्रीराजेश्वरसम्मतम्।।158।।
[3-158]
कौशिकादिलेपः(व्रणे)अo भूo-
[3-159]
मधुसिक्थकगुग्गुल्वोर्ग्राह्यं भागद्वयं पृथक्।
पृथक् पृथक् तैलसर्जरसयोः समभगयोः।।159।।
[3-159]
[3-160]
एको भागस्तथा भागद्वयं श्रीवेष्टकस्य च।
एततसर्वं समादाय तैलं प्राक् तापयेत्ततः।।160।।
[3-160]
[3-161]
मिश्रयेद् गुग्गुलुं सर्वरसञ्च मधुसिक्थकम्।
एकीभूतं ततो ज्ञात्वा पृथक्कृत्य च वह्नितः।।161।।
[3-161]
[3-162]
श्रीवेष्टकं च सम्मिश्रय वाससा परिशोधयेत्।
काचपात्रे चसंस्थाप्य रक्षेत्तत् सर्वयत्नतः।।162।।
[3-163]
[3-164]
शोधकत्वाभिवृद्वयर्थं तैलं सर्षपसम्भवम्।
रोपणत्वाभिवृद्वयर्थं घृतं देय विशेषतः।।164।।
[3-164]
अतस्यदिलेपः(दग्धव्रणे)अo भूo-
[3-165]
अतसीसम्भवं तैलं सर्जनिर्यास एव च।
निम्बपत्रं क्रमेणात्र चतुरेकार्धभागिकम्।।165।।
[3-165]
[3-166]
गृहीत्वादौ निम्बपत्रं कल्कितं तु यथाविधि।
पाचयेच्चातसीतैले ततः सिद्वेऽवतार्य तत्।।166।।
[3-166]
[3-167]
वस्त्रपूतं विधायाथ पुनस्तैलं प्रतापयेत्।
सर्दनिर्यासचूर्णं च त6 सम्मिश्रय युक्तितः।।167।।
[3-167]
[3-168]
मन्दाग्नौपाचयेत्तावद् यावन्न स्याद्विमिश्रितम्।
वस्त्रपूतं ततः कृत्वा विदध्यात्तच्च शीतलम्।।158।।
[3-168]
[3-169]
वारिणैकाधिकशत वारान् प्रक्षालमेच्च तत्।
जलसङ्घर्षतो लेपो गाढश्चाथ सितो भवेत्।।169।।
[3-169]
[3-170]
इत्यतस्यादिलेपः स्यादधिग्धव्रणं हितः।
श्रीराजेश्वरदत्तेनानुभूय बहुधोदितः।।170।।
[3-170]
उदुम्बरसारः(व्रणशोधनरोपणे,वातरक्ते, नेन्राभिष्यन्दे च)
गूलरगुण्विकासे-
[3-171]
औदुम्बराणि पत्राणि क्षालितानि सदम्भसा।
मणोन्मितानि संगृह्य चतुर्गुणजले क्षिपेत्।।171।।
[3-171]
[3-172]
सम्पाच्य क्काथविधिना पादांशं तच्च शोषयेत्।
अवतार्य ततो वस्त्रशोधितं संविधाय च।।172।।
[3-172]
[3-173]
पुनस्तद्घनतावप्त्यै कषायं पाचयेद्भिषक्।
यदा दर्वोप्रलेपः स्यात्तदा तदवातारयेत्।।173।।
[3-173]
[3-174]
संस्थाप्य बाष्पयन्त्रेऽथ दर्व्या शश्वत्प्रचालयन्।
तथा तत्पाचयेद् युक्तया यथा नो दग्धतां व्रजेत्।।174।।
[3-174]
[3-175]
वटीमनिर्माणयोग्यत्वं ज्ञात्वा तमवतारयेत्।
ततः कर्पूरचूर्णं तु पञ्चतोलकसम्मितम्।।175।।
[3-175]
[3-176]
तत्र प्रक्षिप्य सम्मिश्रय रक्षेत् तद् यत्नतो भिषक्।
नाम्नोदुम्बरसारोऽयं वैद्यरत्नेन सत्तमः।।176।।
[3-176]
[3-177]
श्रीचन्द्रशोखरधराह्वयोनाविष्कृतो भुवि।
वातरक्तं तथा नेत्राभिष्यन्दं हग्व्रणादिकान्।।177।।
[3-177]
[3-178]
आमयान् विविधान् हन्ति नात्र कार्या विचारणा।
सविशेषं गुणानस्य ज्ञातुं पश्यन्तु पुस्तकम्।।178।।
[3-178]
[3-179]
विश्रुतं `गूलरगुण-विकास' पदलाञ्छनम्।
जलेन सह सम्मिश्रय प्रयोगं विदधत्वलम्।।179।।
[3-179]
कज्जलिकोदयमलहरः(नीडीव्रणे)अo भूo-
[3-180]
मधु सिक्थभवं तैलं वस्वब्धिमिततोलकम्।
द्वितोलकमिता शुद्वा रसगन्धककज्जली।।180।।
[3-180]
[3-181]
शुद्वमृद्दारूश्रृङ्गस्य दृक्चोलकमितं रजः।
तद्वत्कम्पिल्लकस्यापि वसुसंमिततोलकम्।।181।।
[3-181]
[3-182]
त्रिमाषकोनमितं तुत्थं विशुद्वं चूर्णितं भिषक्।
सर्वमेकत्र संगृह्य खल्वे संपिष्य यत्नतः।।182।।
[3-182]
[3-183]
संमिश्रयेत्सिक्थतैले रक्षेत् तत्काचपात्रके।
अयं मलहरः ख्यातो नाम्ना कज्जलिकोदयः।।183।।
[3-183]
[3-184]
व्रणानां शोधकस्तद्वद् रोपकः परिकीत्तितः।
नाडीव्रणेऽपि हितकृच्चानुभूतो भिषग्वरैः।।184।।
[3-184]
विस्फोटारिरसः(विस्फोटे क्षुद्ररोगे) रo साo संo-
[3-185]
गुडूचीनिम्बजैः क्काथैः खदिरेन्द्रयवाम्बना।
कर्पूरत्रिसुगन्धभ्यां युक्तं सूतं द्विल्लकम्।।185।।
[3-185]
[3-186]
विस्फोटं त्वरितं हन्याद्वायुर्जसधरानिव।।186।।
[3-186]
मसूरिकाहरवटी(मसूरिकायाम्)-अo भूo-
[3-187]
कण्टकारीशिफा ग्राह्या दशकर्षमिता तथा।
तदर्द्वं मरिचं चैतद्द्वयं संचूर्णयेत्ततः ।।187।।
[3-187]
[3-188]
निम्बपत्ररसैनैकविंशतिर्भाविताः शुभाः।
विधाय विधिवद् वैद्यो मरिचप्रमिता वटीः।।188।।
[3-188]
[3-189]
प्रकल्प्य छायाशुष्कास्ताः काचकूप्यां निधापयेत्।
मसूरिकाहरवटीनामिकाऽधिमसूरिकम्।।189।।
[3-189]
[3-190]
एकां द्वे वाऽम्भसा वटयौ सेवेत हितकाम्यया।
इति प्राह भिषग्रजोश्वरदत्तः सुधीः स्वयम्।।190।।
[3-190]
देवकुसुमादिवटी(उपदंशे वाजीकरणे च)अo भूo-
[3-191]
देवकुसुममथ मरिचं रसकर्पूरं च चन्दनं रक्तम्।
काश्मीरं जातिफलं सर्वं समभागिकं नीत्वा।।191।।
[3-191]
[3-192]
संचूर्ण्य खल्वमध्ये निम्बूकोत्थरसेन मर्दयेद्वैद्यः।
पश्चाद्रकत्युन्माना वचटिका निर्माप्य यत्नतो रक्षेत्।।192।।
[3-192]
[3-193]
एषा लोके प्रथिता नाम्ना देवकुसुमादिवटी।
उपदंशेऽपि च वाजीकरणे परमा हिता वटी ज्ञेया।।193।।
[3-193]
[3-194]
प्रातःसायं चैकां द्वे वा वटयौ समं तु दुग्धेन।
यः खादेदनुदिवसं स सुखी स्याद्गदी नियतम्।।194।।
[3-194]
दद्रुघ्नी वटी(दद्रुरोगे)अo भूo-
[3-195]
गन्धकं टङ्कणं चैव पारसीकयवानिका।
चन्द्रं सर्जरसं सर्वं समादाय विचूर्णयेत्।।195।।
[3-195]
[3-196]
जलेन सह संमर्द्य चैकमाषमिता वटी।
प्रकल्प्य छायाशुष्काश्च विधाय स्थापयेच्च ताः।।196।।
[3-196]
[3-197]
दद्रुघ्नीं वटीं नाम दद्रदर्पविनाशिनीम्।
जलेन किंवा निम्बूकस्वरसेन विघृष्य च।।197।।
[3-197]
[3-198]
दद्रुस्थाने तु तल्लेपो विधातव्यो भिषग्वरैः।
श्रीराजेश्वरदत्तीयं मतमत्र प्रकाशितम्।।198।।
[3-198]
गन्धकद्रवः(पामारोगे)अo भूo-
[3-199]
गन्धकं नवनीताह्वं सुधाचूर्णं पृथक् पृथक्।
एकभागोन्मितं चाम्भो नीत्वा षोडषभागिकम्।।199।।
[3-199]
[3-200]
संचूर्ण्य गन्धकं चापि सर्वमेकत्र कारयेत्।
पाकं कृत्वा तु सर्वेषां ज्ञात्वा नारह्गवर्णकम्।।200।।
[3-200]
[3-201]
अवतार्य च वस्त्रेम भिषक् तं परिशोधयेत्।
पामादौ चर्मविकृतौ नाम्नाऽसौ गन्धकद्रवः।।201।।
[3-201]
[3-202]
लाभकृद्वहुशो दृष्टो भिषग्भिः भाषितः।
इति वैद्यकविद्राजेश्वरदत्तेन भाषितः।।202।।
[3-202]
पामारिलेपः(पामायाम्)अo भूo-
[3-203]
पारदं गन्धकं तालं हिङ्गुलं च मनःशिलम्।
मृद्दरूश्रृङ्गं तुत्थं वागुजीं मरिचं तथा।।203।।
[3-203]
[3-204]
समभागेन संगृह्य श्लक्ष्णं संचूर्णयेद् भिषग्।
ततश्चतुर्दशगुणे शतधौते घृते तु गोः।।204।।
[3-204]
[3-205]
संमिश्रय चूर्णं त्रिदिनं लौहखल्वे विमर्दयेत्।
अयं पामारिलेपः स्यात् पामापहरणः परः।।205।।
[3-205]
[3-206]
राजेश्वरेणानुभूतः कृपया संप्रकाशितः।
पामामयाविनां वृन्दे वैद्यन्द्येन शास्त्रिणा।।206।।
[3-206]
रसादिलेपः(पामायाम्)वैo जीo-
[3-207]
रसहिङ्गुलसिन्दूरं मरिचं द्विनिशे तथा।
जीरको धवलश्चापि मेचको गन्धकः शिला।।207।।
[3-207]
[3-208]
एषां पृथक् पृथक् चैको भागो ग्राब्यो भिषग्वरैः।
ततः संचूर्ण्य तत्सर्वं गोघृतेन विमिश्रयेत्।।208।।
[3-208]
[3-209]
अयं रसादिलेपः स्यात् पामायां परमोत्तमः।
इत्युनुभूतः श्रीराजेश्वरदत्तैर्भृशं स्वयम्।।209।।
[3-209]
कासीसबद्वरसः(कुष्ठे)रo रo सo-
[3-210]
पलं रसं हि कासीसैर्युतं पञ्चगुणैः सह।
मर्दयेद्यामपर्यन्तमर्जुनस्य त्वचो रसैः।।210।।
[3-210]
[3-211]
शरावसंपुटे रूध्वा पुटेत्क्रोडपुटेन हि।
रसः कासीसबद्वोऽयं मधुना वल्लतुल्यकः।।211।।
[3-211]
[3-212]
शाणवाकुचिकायुक्तः सेवितो हन्ति निश्चितम्।
त्रिभिर्मासैः किलासं हि दद्रुण्यपि विशेषतः।।212।।
[3-212]
श्विन्रहरलेपः (श्विन्रकुष्ठे)अo भूo-
[3-213]
निशा तथाऽरकमूलत्वग् वागुजी समभागिका।
एतत्सर्वं समादाय श्लक्ष्णं चूर्णं विधाय च।।213।।
[3-213]
[3-214]
वाससा शोधितं कार्यं रक्षेत् तत्कातपात्रके।
अयं श्वित्रहरो लेपः श्वित्रनाशन उत्तमः।।214।।
[3-214]
[3-215]
गोमूत्रेणाथवा शुक्तेनेक्षुजेन भिषग्जनः।
संपिष्यामु ततो लिम्पेच्छ्वित्रस्थानं समन्ततः।।215।।
[3-215]
[3-216]
लेपावतारणान्ते च यदि स्याद् दाहसंभवः।
तदा तु तन्निवृत्यर्थं तैलं तुवरकादिकम्।।216।।
[3-216]
[3-217]
उत्तमं परमं ज्ञेयमायुर्वेदबृहस्पतिः।
इत्याह कृपया राजेश्वरदत्तोऽनुभूय हि।।217।।
[3-217]
सारिवादि कषायः(रक्तशुद्वौ)
[3-218]
सारिवा चोपचीनी गुडूची निम्बजा त्वचा।
मुण्डी च कटुका रक्तचन्दनं च हरीतकी।।218।।
[3-218]
[3-219]
उसवैतत् समं ग्राह्यं तुल्यभागिकमुत्तमम्।
संक्षुद्य सर्वमेकत्र रक्षेत्तदरक्तशोधकम्।।219।।
[3-219]
[3-220]
द्वितोलकमितं तस्माद् गृहीत्वा निर्मलेऽम्भसि।
प्रक्षिप्य षोडशगुणे पातयेत्क्काथकोविदः।।220।।
[3-220]
[3-221]
अष्टमांशावशेषं तं ज्ञात्वा चेवावतारयेत्।
वाससा शोधितं कृत्वा मधुनाऽपिबेद् गदी।।221।।
[3-221]
[3-222]
अयं हि सारिवाद्याह्वः कषायो रक्तशुद्विकृत्।
कोष्ठशुद्विकरश्चापि कथितो वैद्यसत्तमैः।।222।।
[3-222]
सूतशेखररसः(अम्लपित्ते)सारसंग्रहे-
[3-223]
शुद्वसूतं मृतं स्वर्णं टङ्गणं वत्सनाभकम्।
व्योषमुन्मत्तबीजं च गन्धकं ताम्रभस्मकम्।।223।।
[3-223]
[3-224]
चातुर्जातं शङ्खभस्म बिल्वमज्जा कचोरकम्।
सर्वं समं क्षिपेत्खल्ले मर्द्यं भृङ्गरसैर्दिनम्।।224।।
[3-224]
[3-225]
गुञ्जामात्रां वटीं कृत्वा भक्षयेन्मधुसर्पिषा।
रसोऽयमम्लपित्तघ्नो वान्तिशूलामयापहः।।225।।
[3-225]
[3-226]
हन्ति गुल्मान् पञ्च कासान् ग्रहण्यामयनाशनः।
त्रिदोषोत्थातिसारघ्नः श्वासमन्दाग्निनाशनः।।226।।
[3-226]
[3-227]
उदावर्त्तोग्रहिक्काघ्नो दाहयाप्यगदापहः।
मण्डलान्नात्र संदेहः सर्वरोगहरः परः।।227।।
[3-227]
[3-228]
राजयक्ष्माहरः साक्षाद्रसोऽयं सूतशेखरः।
कैश्चिद्वैद्यैः पित्तभञ्जी नाम्नाऽपि च निगद्यते।।228।।
[3-228]
दन्तपूयहरमञ्जनम्(दन्तपूये)अo भूo-
[3-229]
आकारभं तद्वच्चोरकं चन्द्रसंज्ञकम्।
कुष्ठं चाश्ववचा चैतत् समस्तं तुल्यभागिकम्।।229।।
[3-229]
[3-230]
भल्लाततकत्रिफलयोर्भस्मान्तर्धूमसंभवम्।
मिलिचाखिलचूर्णोभ्यो ग्रहीतव्यं च षङ्गुणम्।।230।।
[3-230]
[3-231]
एतत् सर्वं च संमिश्रय स्थापयेत् काचपात्रके।
दन्तपूयाये सद्यो लाभकृद् मञ्जनादिदम्।।231।।
[3-231]
[3-232]
दन्तपूयहरं नाम मञ्जनं भिषजां मतम्।
प्रत्यहं प्रातरपि च क्षपाभोजनतः परम्।।232।।
[3-232]
[3-233]
दन्तमञ्जनमर्हं स्याद् भोजनात्प्रागपि क्कचित्।
श्रीराजेश्वरदत्तस्य मतेनेदं प्रकाशितम्।।233।।
[3-233]
दन्तशूलहरमञ्जनम्(दन्तक्रिमिरोगे दन्तशूले च)अo भूo-
[3-234]
स्फटिका कटुतुम्ब्याः सद् भस्म चापि बृहत्कणा।
भल्लातकफलस्यापि भस्मान्तर्धूमसंभवम्।।234।।
[3-234]
[3-235]
एकैकं तोलकं ग्राह्यं सर्वमेतत्पृथक् पृथक्।
तमाखुपत्रजरजः सैन्धवं मरिचं तथा।।235।।
[3-235]
[3-236]
वातादत्वग्भवं भस्म क्रामुकं भस्म शोभनम्।
परिदग्झा च मृच्चुल्ल्याः प्रत्येकं च द्वितोलकम्।।236।।
[3-236]
[3-237]
एतत्सर्वं समादाय श्लक्ष्णं संचूर्ण्य यत्नतः।
रक्षेदिदं दन्तशूलहरमञ्जनमुत्तमम्।।237।।
[3-237]
[3-238]
दन्तक्रिमिगदे दन्तशूलेऽनुपमलाभकृत्।
अनुभूतं तथा राजेश्वरदत्तभिषग्वरैः।।238।।
[3-238]
फुल्लिकाद्रवः(अभिष्यन्दे नेन्ररोगे)अo भूo
[3-239]
परिस्त्रुतजलं शुद्वं सार्दवसेटकसंमितम्।
विशुद्वं स्फटिकाचूर्णं सैन्धवं च सितोपलाम्।।239।।
[3-239]
[3-240]
पृथक् संगृह्य तत्सर्वं चतुस्तोलकसंमितम्।
संचूर्ण्य मिश्रयेत् सार्धं परिस्त्रुतजलेन हि।।240।।
[3-240]
[3-241]
संशोध्य गाढवस्त्रेण काचकूप्यां निधापयेत्।
अर्केण शतपुष्पायाः शतपत्रीभवेन वा।।241।।
[3-241]
[3-242]
सह संमिश्रणं चेत् स्यात्तदाधिकगुणावहम्।
फुल्लिकाद्रवनामेदं नेत्राभिष्यन्दिनां कृते।।242।।
[3-242]
[3-243]
भैषज्यं हितकृन्नित्यं पातनाद्विन्दुशोऽधिदृक्।
नेत्रं भजति नैर्मल्यं नेत्रामयबयोज्झितम्।।243।।
[3-243]
[3-244]
द्विवारं वा त्रिवारं वा मात्रां बिन्दुद्वयोन्मिताम्।
प्रत्याहं संप्रयोज्यास्य सुखी भवति मानवः।।244।।
[3-244]
नेन्रबिन्दूः(नेन्ररोगे)अoभूo
[3-245]
षण्माषकं तु कर्पूरं फणिफेनं द्वितोलकम्।
रसाञ्जनं समादेयं वसुतोलकसंमितम्।।245।।
[3-245]
[3-246]
सार्धैकसेटकमितः शतपत्र्यर्क उत्तमः।
ततो रसाञ्जनं चाहिफेनं संमर्द्य यत्नतः।।246।।
[3-246]
[3-247]
शतपत्र्यर्केण समिश्रय वाससा परिशोधयेत्।
काचकूप्यां पिधायास्यं तद्रक्षोद्भिषजां पतिः।।247।।
[3-247]
[3-248]
एष संगदितो नेत्रबिन्दुर्नेत्ररूजापहः।
नेत्राभिष्यन्दगदिनां परमानन्ददायकः।।248।।
[3-248]
[3-249]
श्रीराजेश्वरदत्तेन वैद्यराजेन भाषितः।
मोदयेद्विन्दुशो नेत्रे गदिनो ननु पातितः।।249।।
[3-249]
क्षतशुक्लहरो गुग्गुलुः(शुक्ले काचे च नेन्ररोगे)रoसाoसंo-
[3-250]
अयः सयष्टीत्रिफलाकणानां-
चूर्णानि तुल्यानि पुरेण नित्यम्।
सर्पिर्मधुभ्यां सह भक्षितानि
शुक्लानि काचानि निहन्ति शीघ्रम्।।250।।
[3-250]
तिमिरहरलौहम्(नेन्ररोगे)रo साoसंo-
[3-251]
त्रिफलापद्मयष्टयाह्वयुक्तं सायं निषेवितम्।
लौहं तिमिरकं हन्ति सुधाशुस्तिमिरं यथा।।251।।
[3-251]
नयनामृताञ्जनम्(नेन्ररोगे)अo भूo-
[3-252]
विशुद्वं नरसारं च तथाऽब्धिकफ उत्तमः।
शोरकं कलमीसंज्ञं सिता प्राक्तनरीतिजा।।252।।
[3-252]
[3-253]
बीजं पलाशजं तद्वच्छिरीषस्यासितस्य च।
विशुद्वं टङ्गणं ग्राह्यं प्रत्येकं तोलकद्वयम्।.253।।
[3-253]
[3-254]
ममीरानामकं ग्राह्यमञ्जनं चैकतोलकम्।
षण्माषसम्मिता मुक्ताः संग्राह्य भिषजां वरैः।।254।।
[3-254]
[3-255]
अञ्जनं शुद्वमादेयं विंशतिस्तोलकानि तु।
विचूर्णितमिदं सर्वं खल्ले संस्थाप्य यत्नतः।।255।।
[3-255]
[3-256]
सम्मर्द्य शतपत्रीजेनार्केणावेद्यथाविधि।
इदं ख्यातं तु नयनामृताञ्जनममुत्तमम्।।256।।
[3-256]
[3-257]
पीरक्ष्य फलदं दष्टं नेत्ररोगे निरन्तरम्।
इत्युक्तं भिषजा राजेश्वरदत्तेन धीमता।।257।।
[3-257]
रसपुष्पादिमलहरः(फिरह्गजव्रणे)अoभूo-
[3-258]
गुञ्जचतुष्टयं नीत्वा रसपुष्पमनुत्तमम्।
तोलकोन्मितसिक्थोत्थतैले सम्मिश्रयुक्तितः।।258।।
[3-258]
[3-259]
काचकूप्यां तु तद्रक्षेद् भैषज्यं विदुषां वरः।
अयं मलहरो नाम्ना रसपुष्पादिकः श्रतः।।259।।
[3-259]
[3-260]
फिरङ्गजे व्रणे साधुः बहुशोऽत्र परीक्षितः।
इति प्राह बिषग्रजेश्वरदत्तो दर्यर्द्रहडद्।।260।।
[3-260]
गोरोचनादि वटी(योषापतन्न्रके)
[3-261]
गोरोचना जटाऽश्वत्थम्भवा तु पृथक् पृथक्।
रूद्रमाशमिता ग्राह्या तथा कस्तूरिका शुभा।।261।।
[3-261]
[3-262]
रसगुञ्जाधिकदृगुन्मिकसषकसम्मिता।
कश्मरीरजं कुङ्कुमं तु शूमिसम्मितमाषकम्।।262।।
[3-262]
[3-263]
एषां चूर्णं तु संगृह्य नागवल्लीदलाम्भसा।
सम्मर्द्य मुद्गप्रमिता वटयः कार्या भिषग्वरैः।।263।।
[3-263]
[3-264]
इयं गोरोचनागद्याह्वा वटी योषाऽपतन्त्रके।
सदैव लाभकृत्प्रोक्ता बल्याऽपि च विशेषतः।।264।।
[3-264]
[3-265]
एका वा द्वे तु वटिके सेव्याऽस्याः सर्वदाऽम्भसा।
बहुदृष्टफला लोकेऽनुभूता नात्र संशयः।।265।।
[3-265]
प्रतापलङ्केश्वररसः(सूतिकारोगे)-
[3-266]
एकेन्दुचन्द्रालवार्धिकाष्ठा-
कलैकभागैः क्रमशो विमिश्रम्।
सूताभ्रगन्धोषलोहशङ्ख-
वन्योत्पलाभस्म विषं सुपिष्टम्।।266।।
[3-266]
[3-267]
प्रसूतिचापानिलदन्तबन्ध
मार्द्राम्बुना घोरसुसंनिपातान्।
पुरामृताऽऽर्द्वत्रिफलायुतोऽयं-
गुदाङ्कुरान् वल्लमितो निहन्ति।।267।।
[3-267]
[3-268]
निजानुपानैर्निजपथ्ययुक्त्या
सर्वातिसारग्रहणीगदांश्च।
प्रतापलङ्केश्वरनामधेयः
सूतोऽयमुक्तो गिरिराजपुत्र्या।।268।।
[3-268]
उशीरादिपानकः(अंशुघाते)अo भूo-
[3-269]
त्रिमाषकमुशीरं चामलकी रसमाषिकी।
श्वेतटन्जनपङ्कः स्यात्तोलकैकप्रमाणकः।।269।।
[3-269]
[3-270]
सूक्ष्मैलाबीजचूर्णं च चतुर्गुञ्जोन्मितं शुभम्।
घनसारश्चैकगुञ्जो द्वितोलकमिता सिता।.270।।
[3-270]
[3-271]
कुडवोन्मितनीरेण सर्वमेकत्र पेषयेत्।
विधाय वस्त्रपूतं च पाययेदंशुघातिनम्।।271।।
[3-271]
[3-272]
अंशुघातोत्थितार्त्तिस्तु तेन शाम्यति तत्क्षणात्।
वैद्यराजेश्वरैरेतदनुभूतं विशेषतः।।272।।
[3-272]
बृहन्मकमुष्टिः(षाण्ढये स्नायुदौर्बंल्ये च)अo भूo-
[3-273]
आकारकरभं सूर्यभागिकं भस्म चायसम्।।273।।
[3-273]
[3-274]
मकरध्वजसंज्ञो हि रसः साधुविनिर्मितः।
शुद्वं कुपीलुबीजं च प्रत्येकं क्वेकभागिकम्।।274।।
[3-274]
[3-275]
एकभागाष्टमांशं च भस्म सोवर्णमुत्तमम्।
सर्वमेकत्र संमर्द्य चतुर्गुञ्जोन्मितं तु तद्।।275।।
[3-275]
[3-276]
नागवल्लीदलरसैरपि क्षौद्रसमन्वितैः।
प्रयोजयेद्वैद्यवरो रसमेतमनुत्तमम्।।276।।
[3-276]
[3-277]
बृहन्मकरमुष्टयाह्वं बल्यं षाण्ढयविनाशकम्।
स्नायुदौर्बल्यहरणं परीक्षितमनेकधा।।277।।
[3-277]
[3-278]
शास्त्रिराजेश्वरैरत्र लोकोपकृतिहेतवे।
प्रकाशितस्त्वसौ योगः सद्यः प्रत्यकारकः।।278।।
[3-278]
वसालेपयोगः(ध्वजभङ्गे)अo भूo-
[3-279]
समभागेन संगृह्य वसां शूकरसम्भवाम्।
मधुचापि द्वयं यत्नात्साधु सम्मिश्रयेद् भिषक्।।279।।
[3-279]
[3-280]
अयं वसालेपयोगे ध्वजभङ्गे हितावहः।
प्रलेपात्सुभिषग्राजेश्वरदत्तपरीक्षितः।।280।।
[3-280]
इति भैषज्यरत्नावलीपरिशिष्टेऽनुभूतयोगप्रकरणं
समाप्तम्।।3।।
इत्यं भैषज्यरत्नावल्यभीष्टं भिषजां सदा। समापि परिशिष्टं सद् ब्रह्नशंकरशासत्रिणा।।